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मिलिए बिहार वॉलीबॉल के भीष्मपितामह से

by Khel Dhaba
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शैलेन्द्र कुमार
पटना।
जिस खेल के हर पोजीशन व मूव में लंबे कद काठी के खिलाड़ी का ही बोलबाला होता हो ऐसे में एक सामान्य से भी कम कद का खिलाड़ी अपने खेल से धाक जमाता हो तो उसकी प्रतिभा का सहज अंदाजा लगाया जा सकता है। इन्होंने न सिर्फ अपने पूरे परिवार के युवाओं को इस खेल से जोड़ा बल्कि इनकी प्रेरणा से अनगिनत प्रतिभाएं इस खेल की बदौलत अपनी मंजिल हासिल की।इनके परिवार की तीन पीढियों की पहचान व नाम यह खेल ही रहा। यह हस्ती कोई और नहीं राज्य एवं देश का जाना-पहचाना चेहरा व बिहार वॉलीबाल में भीष्म पितामह के रूप में प्रसिद्ध ललित प्रसाद सिंह हैं। लोग कहते हैं कि फुटबॉल खेलने के शौकीन ललित दा एक बार गोलकीपर रहते हुए 29 गोल खा गए और वहीं से इस खेल से तौबा कर वॉलीबाल खेलना शुरू किया । अपने कद के विपरीत वॉलीबाल खेल में खूब नाम कमाया । राजधानी का लोहानीपुर मोहल्ला एक जमाने में इनकी बदौलत इस खेल की लंबे समय तक नर्सरी मानी जाती थी। इनके मित्र बताते हैं कि ये बांग्लादेश की आजादी के लिए भारत-पाकिस्तान के बीच हुई लड़ाई में हिस्सा लेते-लेते रह गए। जब तक लड़ाई वाले स्थल पर पहुंचते तबतक समझौता हो गया। तो आइए जानते है ललित प्रसाद सिंह के खेल कैरियर और उनसे जुड़ी बातों को-

बिहार वॉलीबाल के भीष्मपितामह बन चुके 84 वर्षीय ललित प्रसाद सिंह की आंखों में वॉलीबॉल के लिए दर्द दिखाई पड़ता है। कदमकुआं लोहानीपुर की शान ललित प्रसाद सिंह उम्र के इस पड़ाव पर भी वॉलीबॉल और खेल की बात करने से नहीं घबराते है। पांच फीट साढ़े पांच इंच के ललित प्रसाद सिंह की मुझे आज भी अलग अंदाज बयां करती है। अपने खेल जीवन की शुरुआत स्कूली शिक्षा के दौरान हीं कर दी थी।
खेलकूद का माहौल इन्होंने हीं अपने परिवार में बनाया था। खेल के माध्यम से इन्होंने अपने परिवार को अलग स्थान दिलाया। आज कोई भी शख्स इनका नाम लेकर लोहानीपुर में पहुंच सकता है। ये सभी से आत्मीयता से मिलते है। खेल जगत की शायद एकमात्र हस्ती है, जो अपने सभी जूनियर को सिर पर हाथ रखने के बाद पीठ ठोक कर आर्शीवाद देते है।

छोटा कद होने के बावजूद ललित बाबू ने अपने तकनीकयुक्त खेल से विपक्षी टीम के हौसले को पस्त कर देते थे। वे अपने समय के बेहतरीन लिफ्टर और सप्लाई के सहारे सटीक पास देने के माहिर खिलाड़ी थे। रोटेशन सिस्टम में वॉलीबॉल के मुकाबले खेले जाते थे। इसलिए ये जम्प कर पावरफुल स्मैश भी लगाते थे। तेज सर्विस करने में भी ललित सिंह जी की महारत हासिल थी।

वर्ष 1947 से 1954 तक पटना हाई स्कूल गर्दनीबाग के छात्र रहे ललित प्रसाद सिंह ने खेलकूद से भी दोस्ती कर ली थी। वे बॉस्केटबाल, फुटबॉल, हॉकी और वॉलीबाल भी उस दौरान खेलते थे। वर्ष 1954 में मैट्रिक की परीक्षा उत्र्तीण करने के बाद ललित प्रसाद सिंह ने खेल और पढ़ाई को जारी रखने के लिए बी.एन. कॉलेज में एडमिशन करा लिया। शारीरिक रूप से मजबूत रहे ललित सिंह वॉलीबाल के बेहतरीन डिफेन्डर भी थे। वे गेंद को जमीन टच नहीं करने देते थे।

अपने खेल से उस समय के पारखी वॉलीबाल विशेषज्ञों का ध्यान अपनी ओर आकृष्ठ किया। स्व. वेदानन्द सिंह और स्व. हिमांशु झा ने ललित जी की प्रतिभा को तराशना शुरू कर दिया। फिर क्या था वॉलीबाल का हीरा (ललित प्रसाद सिंह) खेल प्रेमियों के आंखो का नूर बन गया। इन्होंने बेहतरीन खेल की दम पर बिहार वॉलीबाल टीम के चयनकर्ताओं को चयन करने लिए के मजबूर कर दिया। फलस्वरूप 1963 से 1971 तक ललित सिंह लगातार बिहार का प्रतिनिधित्व राष्ट्रीय प्रतियोगिता में किया। इन्होंने अपने खेल से राष्ट्रीय चयनकर्ताओं को भी झकझोरा। लेकिन भारतीय टीम में इनका चयन लंबाई कम होने के कारण नहीं हो सका। वर्ष 1967 में बिहार वॉलीबाल टीम का नेतृत्व किया था। इनके कप्तान भी खेल के दौरान इनसे राय लेते थे। जूनियर खिलाडिय़ों को हमेशा प्रोत्साहित करने वाले ललित सिंह ने कई बार अपना नाम टीम से वापस लिया था।

इन्होंने जीएसी टीम की ओर से पटना जिला फुटबॉल लीग में हिस्सा लिया था। एक मुकाबले में सिर्फ सात खिलाड़ी हीं इनकी टीम में पहुंचे। ललित प्रसाद सिंह गोलकीपर बन गए। नतीजा हुआ कि वे 29 गोल खा गए। जो आज तक इतिहास है। इनके नजदीकी रहे नलिन दयाल ने इस वाक्या को बताते हुए कहा कि हम लोग उस लीग मैच को देखने सिर्फ ललित भईया का खेल देखने गए थे। इसके बाद ललित सिंह ने फुटबॉल से नाता तोड़ लिया।

ललित प्रसाद सिंह नौ भाई-बहन में सबसे बड़े थे। अपने बड़े भाई को खेलता देख उस्ताद के नाम से मशहूर नंद किशोर प्रसाद भी वॉलीबॉल खेलने लगे। ललित प्रसाद सिंह ने सरकारी सेवा में आने के बाद भी खेल से नाता जोड़े रखा। सचिवालय की नौकरी उन्होंने बर्दी के चक्कर में इस्तीफा दे दिया था। ललित प्रसाद सिंह 1997 में बिहार होमगार्ड के कम्पनी कमांडर पद से सेवानिवृत हो गए। लेकिन बाद में इन्होंने अपने हक की लड़ाई लड़ते हुए सरकार से कमांडेट (समादेष्टा) के पद पर कागजी प्रोन्नति लेकर पेंशन प्राप्त कर रहे है।

ललित सिंह के अनुज नंद किशोर सिंह बिहार सरकार के खेल विभाग से उप-निदेशक के पद से सेवानिवृत हो चुके है। इन्होंने वॉलीबॉल में एनआईएस पटियाला से कोच का डिप्लोमा लिया था। इनके एक भाई छोटन सिंह राजनीति के खिलाड़ी बनें। छोटन सिंह देश के प्रधानमंत्री स्व. चन्द्रशेखर जी के काफी करीबी थे। ललित सिंह के पुत्र नवीन कुमार भी वॉलीबॉल के अच्छे खिलाड़ी रहे नवीन वर्तमान समय में मोतीहारी में राजकीय हाई स्कूल में शारीरिक शिक्षक है। ये अपने पिता के पदचिन्हों पर चलते हुए अपने चचेरे भाइयों संजीव कुमार सिंह, राजीव कुमार सिंह व राकेश कुमार सिंह को भी वालीबाल खिलाड़ी बनाया। लेकिन ये लोग ललित प्रसाद सिंह की बिरासत को आगे नहीं बढ़ा सके।

ललित प्रसाद सिंह ने स्थानीय बच्चों को भी वॉलीबॉल की तालीम देने हेतु गवर्मेन्ट तिब्बी कॉलेज कदमकुआं के परिसर में कोर्ट का निर्माण कराया था। यहां एक समय नियमित रूप से वॉलीबाल का अभ्यास होता था।

यादगार लम्हें
एक जाबाज सैनिक बनने का मौका भी इन्हें 1971 में भारत-पाकिस्तान युद्घ के दौरान मिला था। ये उस वक्त बिहार होमगार्ड में सब-इन्सपेक्टर थे। ललित प्रसाद सिंह ने अतित के झरोखे में जाते हुए बताया कि हमलोगो को सीमा सुरक्षा बल के मंजू ट्रेनिंग सेन्टर में विशेष ट्रेनिंग हेतु भेजा गया था। वहां पर लाइट मशीन गन (एल.एम.जी.) को खोलना व जोडऩा सीखे ही थे कि आदेश आ गया कि पूरी टुकड़ी को सीमा पर भेजने का। मैने तुरंत हीं तत्कालीन कमांडर मुरलीधरण साहब से भेंट कर वस्तुस्थिति से अवगत कराया। मुरलीधरण साहब का वो वाक्य आज भी याद है, कि तुम दुश्मन का एक बुलेट बर्बाद करेगा न। युद्घ में वीर गति को प्राप्त हुए सैनिको की लाशे न ही गिनी जाती है। वहां पर सिर्फ दुश्मन देश के बुलेट की गिनती होती है। जिस दिन बुलेट खत्म हुआ हमारी सेना दुश्मनों को कब्जे में ले लेगी। इसके बाद हम लोग सैनिक के ड्रेस में ट्रक पर सवार हो बार्डर के लिए रवाना हो गए। लेकिन गुवाहाटी (असम) पहुंचे हीं थे कि युद्घ विराम हो गया। हमलोग वापस लौटे लेकिन सरकार ने पुलिस वर्दी पर फ्लैग की पट्टी लगाने का गौरव प्रदान किया। उसी युद्घ के बाद से बिहार में पुलिस के लोग फ्लैंग की पट्टी लगाते है। बांग्लादेश का भी निर्माण उसी के बाद हुआ।

ललित बाबू की आंखे अब जवाब दे चुकी है। लेकिन आवाज से पहचान लेते है, कि सामने वाला कौन है। उन्होंने लोहानीपुर और गर्दनीबाग का कनेक्शन के बारे में बताया। उन्होंने कहा कि मैं बचपन में बड़ा शरारती था। घर के बगल में आम के पेड़ पर ‘डोल पत्ता’ खेल रहा था। एक दिन पेड़ पर से जमीन पर गिर गया। मेरे दांयी आंख के उपर एक लकड़ी धंस गया। फलस्वरूप बहुत खून निकल गया। इ सब देखने के बाद दादा ने पिछावट से बहुत मारा। बाबू जी को लगा कि इस इलाके से हटाना जरूरी है। मेरे चाचा राज भवन के गवर्मेन्ट प्रेस में कार्यरत थे। मुझे चाचा के यहां भेज दिया गया। चाचा ने पटना हाई स्कूल गर्दनीबाग में एडमिशन करा दिया। सातवीं कक्षा में पहुंचा तो चाचा का ट्रांसफर गुलजारबाग गवर्मेन्ट प्रेस में हो गया। फिर मैं लोहानीपुर रहने लगा। स्कूल नहीं बदलते हुए मैं रोज रेलवे की पटरी के सहारे पैदल हीं पढऩे जाने लगा। मैट्रिक की परीक्षा वहीं से 1954 में पास किया था। इसी कारण से मेरा कनेक्शन गर्दनीबाग से जुड़ गया। वहां खेल के जानकार लोग रहते थे। अच्छे-अच्छे खिलाड़ी भी थे।

बिहार राज्य पथ परिवहन निगम के उच्चाधिकारी स्व. बनबारी लाल जी के आग्रह पर ललित बाबू ने वहां वॉलीबाल टीम का गठन किया था। सभी खिलाडिय़ों को नौकरी भी मिली थी।

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