Home Slider बिहार शतरंज की पहली पीढ़ी की कहानी- कुछ आंखों देखी, कुछ सुनी और कुछ उनकी जुबानी

बिहार शतरंज की पहली पीढ़ी की कहानी- कुछ आंखों देखी, कुछ सुनी और कुछ उनकी जुबानी

by Khel Dhaba
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अरविंद कुमार सिन्हा,फ़िडे मास्टर
देश के अन्य  भागों की  भांतिबिहार प्रांत मे भी शतरंज और उसकी लोकप्रियता यहाँ के जनमानस में शुरू से ही रची-बसी रही है भले ही इस खेल के देशी  नियमों मे क्षेत्रीय स्तर पर विभिन्नता रही हो | शतरंज संघ की स्थापना (1968-69) से उसका कोई लेना-देना नहीं  रहा है | उसी प्रकार क्षेत्रीय धुरंधरों की गाथा जिन्हें उन खिलाड़ियों  के  विस्यमयकारी खेल प्रतिभा के लिए याद किया जाता है |सुना है कि मिथिलाञ्चल के दरबारी लाल, जो खेल के पूर्व ही किसी खास गोटी को चूने से चिन्हित कर उसी गोटी से प्रतिद्वंद्वियों को मात देने के माहिर माने जाते थे | किसी अन्य क्षेत्र  के कोई अन्य धुरंधर आंखों पर पट्टी बांध कर भी मात देने मे प्रवीण कहे जाते थे | अविभाजित प्रांत के लगभग सभी जिलों मे ऐसे प्रतिष्ठित खिलाड़ियो का डंका बजता था | यह बात और है कि आज के बदले दौर और खेल के बदले नियमो के के कारण न तो कोई खिलाड़ी किसी खास गोटी से किसी को मात दे सकता है और न आंखें बंद कर शतरंज खेला जाना कोई विशेष अचंभे की बात हो सकती है |

एआईसीएफ से 1969 में मिली मान्यता
यद्यपि बिहार राज्य में शतरंज संघ की स्थापना 30 सितंबर 1968 को पटना  मे हुई परंतु भारतीय शतरंज महासंघ से मान्यता का आधिकारिक पत्र 1969 मे मिला | राज्य शतरंज संघ की स्थापना में  पटना इंजीनियरिंग कालेज के प्रोफेसर शिवशंकर प्रसाद वर्मा (वर्मा कॉम्प्लेक्स, बोरिंग रोड चौराहा ) का बड़ा योगदान माना जाता है जो पत्राचार के माध्यम से होने वाली अखिल भारतीय प्रतियोगिताओ मे भाग लिया करते थे और इस नाते देश के नामचीन शतरंज खिलाड़ियो से उनकी  पहचान थी |उनका परिचय दिल्ली के इकबाल कृष्णसे भी था , जो देश के जाने माने  खिलाड़ियों मे शुमार होने के साथ-साथ देश मे शतरंज के स्तम्भ लेखक भी  थे |इकबाल कृष्णसे अपनी निकटता और सहयोग से भारतीय शतरंज महासंघ से बिहार शतरंज संघ को मान्यता दिलाने मे सफलता पायी |

भारतीय के प्रथम राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद के पुत्र संस्थापकों में थे एक
इकबाल कृष्ण की तकनीकी देख-रेख मे ही राज्य की पहली प्रतियोगिता का आयोजनअंतर्राष्ट्रीय नियमों के अनुसार हुआ | यद्यपि पटना के कई अन्य शतरंज प्रेमी भी वर्मा जी द्वारा आहूत स्थापना पूर्व की  बैठकों मे शामिल होते रहे थे जिनमें  ए आर खान का नाम प्रमुख है परंतु वे ऐन स्थापना दिवस की बैठक मे उपस्थित न हो सके जिसके कारण इनका नाम बिहार शतरंज संघ के संस्थापक सदस्यों मे न आ सका | बहरहाल , बिहार शतरंज संघ की स्थापना दिवस की बैठक में डा मृत्युंजय प्रसाद ( प्रथम राष्ट्रपति डा राजेन्द्र प्रसाद के पुत्र ) जो एल आई सी के डिवीजनल मैनेजर थे,  को अध्यक्ष तथा  डा ए एस मेहता ( वनस्पति विभाग, पटना साईन्स कालेज) सचिव चुना गया |अन्य संस्थापक पदाधिकारियों में  मुख्यता: एल आई सी तथा पटना विश्वविद्यालय के लोग ही थे|

स्व. ए आर खान क्रिसेंट क्लब की ओर कराते थे शतरंज
यह सच है कि राज्य शतरंज संघ की स्थापना के पूर्व  1965 से ही,ए आर खान अपने क्रेसेंट क्लब के बैनर तले पहले क्रिकेट, फिर कबड्डी और बाद मे शतरंज की  प्रतियोगिताओ का आयोजन नियमित तौर पर किया करते थे जिसके कारण राजधानी मे शतरंज के प्रमुख आयोजक के रूप मे उनकी एकमात्र पहचान थी | यह बात दीगर है कि उस वक्त तक शतरंज के शतरंज खेल के देशी नियमों का चलन था और अन्य खेलों की भांति बेस्ट आफ थ्री के आधार पर नाकआउट पद्धति से मैच होते थे | जो भी  हो,बाद मे शतरंज ही क्रेसेन्ट क्लब की प्रमुख पहचान बनी रही जो 1990 तक चली |  कहते हैं   कि खान साहब ने  भी राज्य शतरंज संघ की स्थापना एवं मान्यता लेने का प्रयास किया था परंतु भारतीय शतरंज महासंघ मे पर्याप्त पहुँच न होने के कारण वेसफल न हो सके | ऐसे ही एक अन्य  प्रयासकर्त्ता थे मुजफ्फरपुर के रवीद्र नाथ  गुप्ता |गुप्ता जी भी पत्राचार -शतरंज के खिलाड़ी  थे और एलआई सी में कार्यरत थे |बाद में  राज्य प्रतियोगिता खेल कर एक दो बार राष्ट्रीय बी प्रतियोगिता में  बिहार का प्रतिनिधित्व भी किया |कहते हैं कि  ए आर खान को संस्थापक सदस्यो में उनका नाम नही जोड़े जाने का जिंदगी भर मलाल रहा |

राज्य संघ की स्थापना के पूर्व मेभी कई अन्य जिलों मे भी स्थानीय खिलाड़ियों और आयोजकों द्वारा राज्य स्तरीय प्रतियोगिताओ के आयोजन के प्रमाण मिलते हैं जिनमें  आस-पास के जिले के खिलाड़ी ख़ासी संख्या में भाग लेते थे परंतु उन्हे राज्य प्रतियोगिता का दर्जा नही दिया जा सकता | स्थापना के तुरंत बाद ही एक राज्य प्रतियोगिता का आयोजन एल आई सी स्पोर्ट्स क्लब, फ्रेज़र रोड मे हुआ जिसके विजेता के रूप मे एल आई सी  के ही उमा शंकर प्रसाद उभरे | जबकि भारतीय शतरंज महासंघ से मान्यता मिलने के उपरांत 1969 की राज्य प्रतियोगिता के विजेता डाक विभाग के  शिवनाथ प्रसाद बने जिन्होंने दशकों तक राज्य का प्रतिनिधित्व किया | यही कारण है कि उन्हेंपहला बिहार चैंपियन माना जाता है | शिवनाथ प्रसाद 1969 की बैंगलोर मे आयोजित राष्ट्रीय बी शतरंज प्रतियोगिता मे पहली बिहार टीम के कप्तान के रूप मे कर्नाटक के राज्य चैंपियन को पहले चक्र मे पराजित कर बिहार को पहचान दिलाई | थोड़े साँवले, थोड़े  स्थूल, स्वभाव से सरल, थोड़े से कंजूस किन्तु आर्थिक रूप से समर्थ इस खिलाड़ी के गिरफ्त से बच पाना कठिन था खास तौर पर तब, जब उन्हें एक पैदल की बढ़त हासिल हो |  बड़े खिलाड़ी होने का अहं तो उन्हें छू तक  नहीं गया था | यहाँ तक कि उन्हें अक्सर पटना विश्वविद्यालय के सामने के फुटपाथ पर बैठ खेलते देखा जा सकता था | नए उभरते खिलाड़ियो को सदैव उनका प्रोत्साहन मिलता था | उक्त स्थल पर जुटने वाले अन्य  खिलाड़ियों में मोहम्मद मुस्तफा, अब्बास निजामी, कमरूद्दीन अहमद, मो हसनैन आदि प्रमुख थे जिन्हें मजबूत चुनौती के रूप मे राज्य स्तर पर पहचान मिली |

यद्यपि उस समय के सर्वाधिक नामचीन खिलाडीबी के श्रीवास्तवको उक्त दोनों राज़्य प्रतितयोगिताओं से चयनित  टीम में जगह नही मिल पायी परंतु  उन्हें बिहार के सबसे बड़े खिलाड़ियों में सम्मान के साथ पहला स्थान निर्विवाद रूप से प्राप्त है |सर्वाधिक बार बिहार चैंपियन बनाने का रिकार्डआज भी उन्हीं के पास है |  घुँघराले बालों, लंबी खड़ी नाक,आकर्षक व्यक्तित्व और हर वक्त मंद-मंद मुस्कान बिखेरने वाले श्रीवास्तव जी की हंसी ठिठोली, वाक्पटुता और मिलनसार स्वभाव को कोई कभी नहीं भूल सकता | उनके इर्द गिर्द प्रशंसकों की भीड़ हठात उनकी पहचान बता देती |  राष्ट्रीय स्तर पर नामचीन खिलाड़ियों  में शुमार बी के श्रीवास्तव को 1971  की राष्ट्रीय बी प्रतियोगिता में  11वां  स्थान मिला था | उस समय प्रथम 10 खिलाड़ियों  का चयन राष्ट्रीय ए प्रतियोगिता के लिए होता था | हालांकि उस समय  रिक्तियों को  11वें  या 12वें खिलाड़ी से भरे जाने पर कोई रोक नहीं थी और वे शिमला में आयोजित  राष्ट्रीय ए प्रतियोगिता भाग ले  पाने का  निवेदन कर खेल सकते थे | एक रिक्ति भी हो गई, सो चांस भी मिला, परंतु दुर्भाग्यवश ऐसा न हो सका और वे राष्ट्रीय ए प्रतियोगिता खेलने से वंचित रह गए |  दिल्ली की 1980 में  आयोजित राष्ट्रीय बी प्रतियोगिता मे उनका प्रदर्शन उल्लेखनीय था  जिसके अंतिम चक्र की राजस्थान के प्रतिभावान युवा  खिलाड़ी एम मोटवानी से लगभग जीती बाजी हार गए जो उन्हें राष्ट्रीय ए  प्रतियोगिता की सीट दे सकता था | तमाम खूबियों और सामर्थ्य के धनी यह  प्रतिभा राष्ट्रीय ए प्रतियोगिता  खेल पाने से वंचित रह गयी  जो उनका सपना था |श्रीवास्तव और शिवनाथ की  डाक-तार विभाग की इस दमदार जोड़ी का मैच आकर्षण का केंद्र हुआ करता था जिसे देखने के लिए पटना सिटी से दानापुर तक के शतरंज प्रेमियों की भारी भीड़ जुटती थी |

आपको याद हो कि उस वक्त से ही मुरादपुर के बिहारी साव लेन  में शतरंज दिग्गजों और प्रेमियों का शाम में जुटान हुआ करता था | बिहार का शायद ही कोई खिलाड़ी हो जो वहाँ दर्ज न हो सका हो | शतरंज में आपकी यदि तनिक भी रूचि रही हो तो आर्मी से रिटायर्ड डा पी एन वर्मा का वह पैथोलोजिकल  क्लीनिक और  उसके लैब टेकनीशियन शंभू साह को जरूर जानते होंगे | शतरंज के प्रति शंभू साह का अनन्य प्रेम और समर्पण ही था जिसकी बदौलत उस अड्डे से बिहार को अन्य प्रतिभाएं मिलीं जिसमे अरविंद कुमार सिन्हा,वर्गीज़ कोशी के नाम प्रमुख हैं जिन्हें कालांतर  में  क्रमश: फिडे मास्टर और अंतर्राष्ट्रीय मास्टर का खिताब मिला पर  इन्हें दूसरी पीढ़ी के खिलाड़ियों मे गिना जा सकता है |[ शंभू साह के क्लीनिक से निकले तीसरी पीढ़ी के खिलाड़ियों में पप्पू रमानी, सुमन कुमार सिंह, किशोर कुमार पांडे का नाम प्रमुख है जो अपने समकालीन प्रमोद कुमार सिह, यूसूफ़ हसन, नवीन उपाध्याय आदि के साथ रहे ]  बिहार टीम के सदस्य होने के गौरव के साथ-साथ शंभू साह का हंसमुख और सदैव आपकी सहायता के लिए प्रस्तुत व्यक्तित्व 2009 मे उनके परलोक गमन के बावजूद आज भी जीवित है | मूल रूप से हिलसा निवासी और पीएम सीएच के वरिष्ठ लैब टेकनीशियन के पद से रिटायर शंभू जी ने बिहारी साव लें में ही मकान बनाया और क्लीनिक के लिए अलग जगह खरीदी जहां आज भी खिलाड़ियों का जमावड़ा देखा जा सकता है | उनके सुपुत्र विनायक जी ने  वह कमरा बिना किसी किराये के शतरंज के खेल के लिए समर्पित कर दिया है | अपने शतरंज प्रेमी पिता के लिए किसी पुत्र की इससे बड़ी श्रद्धांजलि और क्या होगी !

राजधानी के अन्य प्रमुख शतरंज प्रेमियों एवं शतरंज एवं खिलाड़ियों के उत्थान तथा सहायता को सदैव तत्पर खिलाड़ियों की बात किए बिना यह चर्चा अधूरी रहेगी जिनकी उयपस्थिति मात्र से माहौल मुस्काता था | वे हैं  प्रो  पदमदेव नारायण शर्मा ,प्रो सुधांशु मोहन सिंह,डा रामाकांत प्रसाद सिंह , और डा एन सी चांग |

प्रो पदमदेव नारायण शर्मा तीसरे अध्यक्ष बने
प्रो पदमदेव नारायण शर्मा,एम एल सी ( प्रिन्सिपल वाणिज्य महाविद्यालय और बाद में मंत्री भी) बिहार शतरंज संघ के तीसरे अध्यक्ष बने|उनका चयन संघ के दूसरे अध्यक्ष डा  डी एन सिंह के बाद का रहा जो पटना इंजीनियरिंग कॉलेज के प्रिंसिपल थे |डा पी एन शर्मा,डा के के जमुआर ( मनोविज्ञान विभाग ,पटना कॉलेज) सचिव तथा इंजिनियरिंग कॉलेज के यान्त्रिकी विभाग के प्रो एस एन चक्रवर्ती,उपाध्यक्ष| इस तिकड़ी ने वह कमाल कर दिखाया  जिसने अनायास ही बिहार शतरंज कोबड़ी उछाल दी और उसे  भारत के नक्शे पर ला खड़ा किया | पहली बार राष्ट्रीय बी तथा राष्ट्रीय ए प्रतियोगिताओं  के आयोजन ने खेल प्रेमियों कॉ शतरंज के उन महारथियों के साक्षात दर्शन कराये जिनके खेल-कौशल के बारे  में सिर्फ सुना जाता था | उनमें भारत के पहले अंतर्राष्ट्रीय मास्टर और अर्जुन पुरस्कार विजेता मैनुअल एरन, नासिर अली,मोहम्मद  हसन,नबाब अली, नसीरुद्दीन ग़ालिब, अब्दुल जब्बार सरीखे भारत का प्रतिनिधित्व करने वाले खिलाड़ी शामिल थे|राष्ट्रीय बी प्रतियोगिता का आयोजन जहां इंजीनियरिंग कॉलेज के दो मंज़िले पर स्थित हॉल में किया गया वहीं राष्ट्रीय ए प्रतियोगिता जिसमें  देश के सर्वश्रेष्ठ चुनिन्दा खिलाड़ी ही खेल सकते थे,  पटना कॉलेज के कॉमनरूम में कराई गई |

राष्ट्रीय ए प्रतियोगिता के निदेशक आर बी सप्रे, जो स्वयं भी भारत के विजेता रह चुके थे, ने कहा था कि उनहोंने शतरंज  में दर्शकों की इतनी भारी भीड़ कभी नहीं देखी | रफीक खान और राजा रविशेखर जैसे युवा प्रतिभाओं ने अनुभवी और अधेड़ दिग्गजों पर हाबी होकर यह जता दिया कि अब यह बौद्धिक खेल युवा प्रतिभाओं की थाती बनेगी | अगले वर्ष डा पी एन शर्मा कॉ भारतीय शतरंज महासंघ का उपाध्यक्ष भी चुना गया |[ प्रो एस एन चक्रवर्ती 1980-81-82 तक राज्य शतरंज संघ के अध्यक्ष भी रहे तब अरविंद सिन्हा पहली बार सचिव थे |[ इसी अवधि में प्रमोद कुमार सिंह ने लगातार दो बार राष्ट्रीय जूनियर प्रतियोगिता के विजेता बने और 1982 में राष्ट्रीय ए प्रतियोगिता भी खेली |] शर्मा जी का दिल शतरंज खिलाड़ियों और प्रेमियों के लिए सदैव खुला रहा | कईयों को अपने विभाग में नौकरी दी और अन्य सहायता भी | उन्हें बिहार शतरंज संघ के अभिभावक के रूप सम्मान प्राप्त है |

मिथिलाञ्चल के ही प्रभु नारायण लाल और उनके भतीजे डा सुरेश चन्द्र लाल शीर्ष  खिलाड़ियों
मिथिलाञ्चल के ही प्रभु नारायण लाल और उनके भतीजे डा सुरेश चन्द्र लाल भी शीर्ष  खिलाड़ियों की सूची में शामिल रहे | साइंस कॉलेज के रसायन शास्त्र विभाग के डा एस सी लाल  भी बाद में राज्य शतरंज संघ के सचिव भी रहे और  बिहार चैंपियन भी |

अजातशत्रु माने जाने वाले डा आर के पी सिंह के  योगदान को कौन भूल सकता है | परितोषिक वितरण के दिन अपनी ओर शतरंज की पुस्तकें सभी विजेताओं को ईनाम स्वरूप बांटना विजेताओं  को न सिर्फ भाव विह्वल कर देता था बल्कि उन्हें अपने खेल कौशल को  धार देने को प्रेरित भी करता था| ए आर खान के सचिव के कार्यकाल 1982-83 में उनहोंने अध्यक्ष पद भी बड़ी कुशलता से संभाला।  स्वभाव से अत्यंत सरल और मृदुभाषी, धोती -कुर्ता और पाँच -सात किलो वजन के मैगजीन, अखबार के ढोये पैदल चलने वाले,बी एस कॉलेज दानापुर में  अँग्रेजी के प्रोफेसर को, किसी चौक चौराहे पर  शतरंज खिलाड़ियों के झुंड में बाजियों से जूझते या भावावेश में  ज़ोर-ज़ोर  से चालबताते आसानी से पहचाना जा सकता था | ग्रामीण वेश भूषा ,उद्भट्ट साहित्य प्रेमी,अँग्रेजी,हिन्दी के विद्वान  एवं कवि  ह्रदय – यही था व्यक्तित्व उनका |

बिहार के कतिपय सम्पन्न कुलीन परिवारों से आए सुधांशु बाबू पहले पटना इंजीनियरिंग कालेज के प्राध्यापक बने  पर बाद मे उसे छोड कर बड़े कान्ट्रैक्टर के रूप में प्रतिष्ठित रहे |स्थूल काया ,गौर वर्ण, मँझोला  कद,  धीमी चाल परंतु शतरंज में अच्छों को सांसत में डालने की क्षमता | जाहिर है, सामने वाला उनकी शार्प  चालों से चकित हो जाता | खेल में जीतना और पारितोषिक पाना उनका उद्द्येश्य तो कभी था भी नहीं | लगभग सभी आयोजक उनसे सहायता राशि की आशा रखते थे | उन्होने किसी को निराश नहीं किया |खेलते समय अपनी सुनहरी कलाई घड़ी उतार कर रख देना और बीच बीच में लौंग -इलायची का स्वाद लेते सुधांशु बाबू बड़े इंमीनान से खेलते थे | उनका बड़ा सम्मान था |[ अरविंद और कोशी पर उनका विशेष कृपा रही | उन्हें शतरंज साहित्य मुहैया कराने के साथ साथ अन्य सहायता भी करते | लंदन में अपने भाई के यहाँ ठहरने, खाने पीने की व्यवस्था जैसी मदद के बिना अरविंद सिन्हा के लिए कॉमन वेल्थ चैम्पियनशिप और लॉयड बैंक प्रतियोगिता खेल पाना संभव भी नहीं था जहां इस खिलाड़ी को फ़िडे मास्टर का खिताब मिला ]

ऐसे ही थे  डा  एन सी चांग |  नाटा  कद,गौर रंग,शतरंज का जुनून पर कहीं बाहर बैठ कर खेलेने से कतई परहेज |आयोजकों को आर्थिक सहायता देने में सदैव तत्पर | सामान्यतया अच्छी ओपनिंग और पोजीशन के बावजूद धैर्य की कमी के कारण अक्सर हार जाने वाले इस प्यारे खिलाड़ी को उस वक्त के खिलाड़ियों  के लिए भूल पाना असंभव है  | बाजी की समाप्ति के बाद आयोजकों और खिलाड़ियों के बीस- पच्चीस के झुंड को चाय- बिस्कुट और सिगरेट कराने ले जाना उनका शौक था,जिसके लिए खिलाड़ी उनकी बाजी की समाप्ति की प्रतीक्षा करते|खान साहब सहित उस समय के सारे आयोजक उन्हें हॉल में आने के लिए एक घंटे का अतिरिक समय तक दे देते थे जिस पर कभी किसी खिलाड़ी को ऐतराज नहीं रहा |परंतु उनका विशेष अनुग्रह अरविंद सिन्हा पर रहा | बिहार टीम को विदा करने स्टेशन आते और अरविंद को चुपके से चार-पाँच सौ रूपए  के साथ सिगरेट के बीस पैकेट का कार्टन जरूर देते | यहाँ तक कि विश्व चैंपियन द्वारा लिखी गई लगभग डेढ़ दर्जन मंहगी पुस्तकें भी पढ़ने के लिए लंदन से मंगा कर दीं |डा पी एन शर्मा  की तरह वे भी अंत तक उसके अभिभावक बने रहे |

बिहार शतरंज की पहली पीढ़ी के वैसे अनेकों खिलाड़ी  हैं जिन्होंने उस दौरान संघ से न तो जुड़ना चाहा, न नाम  पर खिलाड़ियो के बीच अपनी ज़िंदादिली, बेवाकी और विशेष अंदाज से जोरदार उपस्थिति दर्ज कराई | आइए,उस दौर के चर्चित सितारों से मिलें | सबसे पहले मिलते  हैं  गोलघर निवासी वेद प्रकाश जी से जो तेज और तुरंत चाल चलने में माहिर थे | बस समझ लें कि आज के ब्लीट्ज़ चेस के उम्दा खिलाड़ी | दमे के मरीज थे पर बिला नागा घंटों शतरंज खेलेते देखे जाते थे । आपने चाहे कैसी भी कठिन चाल दी हो,आपका हाथ मोहरे से हटा नहीं कि जबाब हाजिर है | सामने वाली को सांस तक लेने की फुर्सत नहीं। महेश्ववर मिश्रा, आर पी सिंह, एन एन सहाय , हरे मुरारी सिन्हा आदि को पटना जी पी ओ के सामने के क्लब मे प्रतिदिन खेलते और खेल में हार कर हुज्जत करते और बाद में गलबहिंयां डाले देखा जा सकता था |एक बार पटना जिला प्रतियोगिता के एक चक्र में एन एन सहाय ने महेश्वर मिश्रा  की किश्ती से उनकी ही किश्ती को मार कर अपनी जीत दर्ज करा ली | बाद में किसी अन्य खिलाड़ी ने उन्हें  याद दिलाया कि आपकी ही की किश्ती डबल थी तो आप कैसे मात हों गए ? याद आते ही मिश्रा जी उबाल पड़े और  बड़ा हंगामा मचाया | पर थोड़े मनाने पर दोनों साथ-साथ हंसी ठिठोली करने लगे । खजांची रोड में रहने वाले थे सेंट्रल बैंक के एस के घोष | हमेशा छाता और टॉर्च के साथ देखे जाते थे। प्रो रमाकांत प्रसाद सिंह से अच्छी पटती थी | घोष बाबू ने, अपनी पत्नी की अनुपस्थिति का फायदा उठाते रमाकांत बाबू को घर पर शतरंज खेलने के लिए बुला लाये।

रमाकांत बाबू की सिगरेट से रज़ाई जलती रही, धुआँ फैलता रहा , पर उससे बेखबर दोनों शतरंज खेलते रहे |एल आई सी स्पोर्ट्स क्लब का नजारा भी कमोबेश ऐसा ही रहता था जहाँ हरे मुरारी सिन्हा, लाला आर एन रईस, रुपेन्द्र नारायण सिन्हा, उमाशंकर प्रसाद जैसे उस दौर के चर्चित खिलाड़ियो का जमावड़ा जुटता था |रूपेन्द्र नारायण सिन्हा का नाम संस्थापक सदस्यों में दर्ज है |बिहारी साव लेन का अखाड़ा भी कहीं से कम नहीं ठहरता था |प्रहलाद नारायण साव , मखनियाँ कुआं रोड के लाला गोप ,आशिक हुसैन, सीताराम रमानी, छोटू पंडित,रामावतार जी उर्फ सेठ जी, बासुदेव साव सरीखे शतरंज प्रेमियों का खेल में चाल लौटाते, बाजी अच्छी होने पर गीत के तान छेड़ते जिससे चिढ़ कर सामने वाले का तमतमाना और फिर दुबारा वहाँ न आने की कसमें खाते हुये रूठ कर चले जाना और दूसरे दिन मनाने पर आ जाना  तो आम बात थी | पुरानी सचिवालय के राय जी के कैंटीन के सामने घास पर हाथ आजमाने वालों  में नामी खिलाड़ी थे जिनमें पी पी अंबष्ठ, कृष्णा प्रसाद का नाम प्रमुख रूप से लिया जा सकता है  जिन्होंने राष्ट्रीय प्रतियोगिताओं तक में खेला | आपकी क्या मजाल जो आप पी पी अंबष्ठा जी से सचिवालय में मिलें और वे आपको बिना सिंघाड़ा और चन्द्रकला खिलाये जाने दें !

यदि हम पटना के अलावा राज्य के अन्य क्षेत्रों में बसे पहली पीढ़ी की किस्से न करें तो यह चर्चा अधूरी रहेगी | पूर्णिया  के मशहूर डेंटल सर्जन डा एस सी विश्वास का क्लीनिक भी सुबह 9 से देर शाम तक गुलजार रहता था | डा साहब स्वयं भी शतरंज के शौकीन थे और वहाँ की शतरंज गतिविधियों के आधार स्तम्भ भी |पूर्णिया के स्कूल  शिक्षक एस एन शर्मा के साथी भी जो अच्छे खिलाड़ी भी थे और वहाँ उनके साथ 1983 में राज्य प्रतियोगिता भी कराई |जमशेदपुर के आर एस प्रसाद और के एम प्रसाद भी मशहूर खिलाड़ियों में गिने जाते थे| जिला संघ भी संभाला और टूर्नामेंट भी कराये | रांची के नवरंग शर्मा जो पेशे से वकील थे, अपने इलाके के धुरंधरों में गिने जाते थे | मुंगेर के आर के देव अपनी ढलती उम्र की परवाह  किए  बिना  कम से कम एक बार राज्य प्रतियोगिता में अवश्य चले आते थे |यह बताने पर कि उनकी बाजी जीती हुई थे, खिल उठते|सीवान के मशहूर वकील श्रीकांत सिंह का विशाल घर तो कोर्ट की बंदी के दिनों में शतरंजियों से भरा रहता था |घर के नौकर-चाकर सबों की सेवा में लगे रहते थे | दरभंगा साईन्स कॉलेज  के भौतिकी विभाग के प्रो पीयूष नाथ झा भी धुरंधरों में गिने जाते थे, पर वहाँ के चौक पर चौकड़ी जमाते थे। ऐसी प्यारी हस्तियों की मौजूदगी  से बिहार का हर इलाका शतरंज के खुशनुमा माहौल मे महकता रहता था | कभी कोई अपेक्षा नहीं और न तो शिकायत , न हारने का गम | जरा सी जीत मिलने पर बच्चों जैसे खुश हों जाते थे |उस दौर में आरा  में भी वहाँ के मशहूर आई स्पेशलिस्ट डा रमणी मोहन सिन्हा जैसे खेल प्रेमी की क्षत्रछाया में शतरंज खूब फला-फूला, 1981 में  एक शानदार राज्य प्रतियोगिता भी कराई |तब वे अपने जीवन के 65 बसंत देख चुके थे | 


वैसे ही,अवधेश कुमार सिन्हा भी आरा के निवासी थे परंतु आधा से ज्यादा जीवन एल आई सी , मुजफ्फरपुर मे बीता | पत्राचार से शतरंज खेलने में  माहिर | ढेर सारी शतरंज की किताबों के शौकीन पर किसी को देते नहीं |सिर्फ नेशनल बी में पत्राचार  संघके कोटे से खेलना चाहते,, बाकी टूर्नामेंट खेलने से कतराते थे |पर किसी खिलाडी  के आव-भगत में उनका सानी नहीं था |  बाद में ट्रान्सफर लेकर पटना आए और खान साहब से और अन्य खिलाड़ियों से दशकों पुरानी दोस्ती निभाते रहे |अविवाहित थे |हमेशा झक सफ़ेद पैंट शर्ट में दिखने वाले  अवधेश जी अपने उदारचित्त होने के कारण सबके चहेते रहे |उनके रहते कोई चाय नाश्ते का पेमेंट करने की हिमाकत नहीं कर सकता था |अंत में , बोकारो स्टील के खेल अधिकारी एस  एन प्रसाद के बिना या चर्चा अधूरी रहेगी |उनका नाम बिहार के बड़े फुटबाल आयोजकों में शामिल है जिसमें श्रीकृष्ण सिंह गोल्ड कप प्रमुख है |स्वयं तो  खेलते नहीं थे पर अपनी कंपनी के आनंद कुमार, हेम चन्द्र झा, कृष्ण प्रसाद, नरेंद्र कुश्त्वार, वी एन सिंह आदि को उनका प्रश्रय मिला जो बिहार के दिग्गज खिलाड़ियों में शामिल रहे |[ ये सभी खिलाड़ी काफी व्रूद्ध हों चले हैं पर प्रसन्नता है कि वे स्वस्थ हैं]

हम जिस कालावधि को पहली पीढ़ी मानकर चले हैं, वह मोटे तौर पर 1963 से 1973 के आस-पास ठहरती है, यानि राज्य संघ की स्थापना से पाँच वर्ष आगे-पीछे | यही वह काल रहा जब बिहार में शतरंज की सक्रियता का उद्द्येश्यपूर्ण प्रतिफल प्राप्त हुआ और एक राज्य संघ का विधिवत गठन हो सका |आज वे सारे लोग हमारे बीच नहीं हैं पर उनका आशीर्वाद हमें सदैव प्रेरणा देगा |ऐसे में उस कालखण्ड में सम्मिलित बिहार के हर जिले और प्रखण्ड के  शतरंज प्रेमी जो इस चर्चा में आ पाये अथवा छूट गए हों — वंदनीय हैं  | परंतु दशकों पूर्व के उन तमाम गुमनाम खिलाड़ियों और शतरंज प्रेमियों, जिनके बारे में हम नहीं जानते परंतु जिन्होंने अपने अनुराग और निष्काम योगदान से  इस खेल को पीढ़ी –दर पीढ़ी न सिर्फ संरक्षित किया बल्कि जीवंत बनाए रखा —-वे सभी वर्तमान बिहार शतरंज संघ के नींव के पत्थर के समान पूजनीय हैं | उन सब को हमारा शत-शत नमन !

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