Saturday, June 21, 2025
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शतरंज के इस बाजीगर ने पहले पंडिताई की फिर किसानी और बाद में विश्व शतरंज क्षितिज पर छा गया, जानें उनके बारे में

by Khel Dhaba
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अरविंद कुमार सिन्हा, फिडे मास्टर
आपने देखा होगा कि कई प्रतिभाशाली हस्तियां अपनी लाख कोशिशों के बावजूद वह मुकाम हासिल न कर पाईं जिसके वह लायक थीं। कारण रहा कि उस दौर में कोई अगाध क्षमतावान व्यक्तित्व पहले से मौजूद रहा। आज की चर्चा के नायक एफिम बोगुल्युबोव भी वैसे ही थे जो विश्वविजेता बनने की तमाम खूबियों के होते भी विश्वविजेता नहीं बन पाये क्योंकि उन दिनों विश्व के महानतम शतरंज खिलाड़ियों में शुमार अलेक्ज़ेंडर अलेखाईंन/अलेखिन और जोस राउल कैपाब्लांका का स्वर्णिम दौर चल रहा था।

एफिम द्मित्रिएविच बोगुल्युबोव का जन्म यूक्रेन के कीव (उन दिनों उसे रशियन साम्राज्य) में 14 अप्रैल 1889 को एक ग्रामीण पुरोहित परिवार में हुआ। उनका परिवार उन दिनों स्टैंनिस्लाव्चिक, जो यूक्रेन की एक बस्ती थी, में रहता था। अपने पुकारू नाम रोमनिज़्द बोगुल्युबोव से प्रसिद्ध उस बाल प्रतिभा ने यूं तो 9 वर्ष की उम्र में स्वयं ही शौकिया तौर पर शतरंज की चालें चलना जान लिया था पर वास्तविक अर्थों में खेलना तब सीखा जब उनकी उम्र 17-18 वर्ष की हो गई थी। उस खोजी स्वभाव के किशोर ने पहले तो अपने पिता के पदचिन्हों पर चल कर, अर्थात् पैतृक पुरोहित वृत्ति में आने के लिए धर्मशास्त्र का अध्ययन किया, फिर खेती-बाड़ी की ओर ध्यान गया तो कृषिशास्त्र पढ़ने के लिए कीव के पोलिटेकनिक में नाम लिखा लिया। उसी दौर में उसके शतरंज के शौक ने उसके कदम वारसा कॉफी हाउस, जो शतरंज का क्लब भी था, की ओर बढ़ा दिये। शुरुआत में तो वह खूब हारता पर उसके शतरंज खेलने का जुनून इस कदर सवार था कि वह क्लब खुलने के साथ वहां जा धमकता और देर रात क्लब बंद होने तक खेलता रहता। कॉपियों पर अपनी खेली बाजियों को लिखता, विश्लेषण करता  और अपनी खोज को लिखता, फिर प्रैक्टिस में जांचता और पूरी ओपनिंग लाईन तैयार करता।  देखते-देखते वह कुशाग्रबुद्धि किशोर वहां का सर्वश्रेष्ठ खिलाडी बन गया। कभी एक पैदल कम रख कर या कभी एक चाल पीछे होकर बडे-बड़ों को मात देने लगा। आज के दौर में तो 15-16 वर्ष की उम्र में लोग ग्रैंडमास्टर तक बन जाते हैं।

1911 में, जब बोगोल्यूबोव 22 साल के थे तब उन्होने कीव शहर की प्रतियोगिता जीती और ऑल रशिया अमेच्योर प्रतियोगिता में 10 वां स्थान पाया | अगले वर्ष विलनियस टूर्नामेंट में चेकोस्लोवाकिया के चैम्पियन कैरल ह्रोमादका के बाद स्थान पाया | 1913-14 में सेंट पीटर्सबर्ग में आयोजित ऑल रशियन मास्टर्स अर्थात 8वीं रशियन चैम्पियनशिप में आठवाँ स्थान पाया जिसमें अलेक्ज़ेंडर अलेखिन और एरन निम्जोविच संयुक्त रूप से विजेता घोषित किए गए थे | इस उपलबद्धि ने बोगुल्युबोव को रूस के शीर्ष खिलाड़ियों में स्थापित कर दिया |

जर्मनी के मैन्हीम में 19वीं डी एस बी चेस कॉंग्रेस 20 जुलाई 1914 से होना था जिसके तहत कई टूर्नामेंट के आयोजन होने थे। बोगुल्युबोव ने अब अंतर्राष्ट्रीय प्रतियोगिताओं के ओर रूख करने की ठानी और वे जर्मनी में आयोजित होने वाली कॉंग्रेस में भाग लेने चले। बोगुल्युबोव के लिए वह यात्रा भाग्यशाली साबित हुई। बलहौस, मैन्हीम में भाग लेने वाले विश्व के नामचीन खिलाड़ियों में एस्टरो-हङ्गेरियन साम्राज्य से ग्युला ब्रेयर (हंगरी), ओल्डरिच डुरास (बोहेमिया ), रिचर्ड रेटी (स्लोवाकिया ), रूडोल्फ स्पीलमन (आस्ट्रिया), साइवेल्ली टार्टाकोवर (पोलैंड),मिलन विदमर (स्लोवेनिया ), रशियन साम्राज्य से अलेक्ज़ैंडर अलेखिन, अलेक्जैंडर आल्याचीन (दोनो रशिया), एफिम बोगोल्यूबोव (यूक्रेन) और अलेक्जैंडर फ्लैमबर्ग (पोलैंड), फ्रांस से डेविड जैनोव्स्की ; जर्मन साम्राज्य से सिग्बर्ग टैराश (नम्बर्ग) और अमेरिका से फ्रैंक मार्शल शामिल थे जिनके नाम सुधी पाठकों सहित आज के शतरंज खिलाड़ियों के जेहन में बसे हैं। बहरहाल, अलेक्जैन्डर अलेखिन 9.5 अंकों के साथ सबसे आगे चल रहे थे, तभी शायद 31 जुलाई को जर्मन सेना ने शहर को घेर लिया और चल रही प्रतियोगिता को बंद करने का आदेश दे दिया। 1 अगस्त 1914 विश्व युद्ध की घोषणा हो गई। खेल तो बीच में ही बंद हो गया, पर आयोजकों ने पारितोषिक की राशि खिलाड़ियों के उस समय के अंक योग के आधार पर क्षति-पूर्ति के लिए ‘सांत्वना  पुरस्कार’ के रूप में बाँट दिये जिनमें बोगुल्युबोव भी शामिल थे। शीर्ष पर रहे अलेखिन को 1100 मार्क मिले जिसकी आज की कीमत में 11000 यूरो कहा जा सकता है।    

सभी खिलाड़ियों, विशेषकर रशियन साम्राज्य के, जेल में उनकी सुरक्षा हेतु, रख दिया गया। जेल में उनके पड़ोसी थे अलेखिन। उस दौरान भी उन खिलाड़ियों का शतरंज खेलने का शौक बरकरार रहा और कहते हैं कि अलेक्जैन्डर अलेखिन और बोगुल्युबोव की जोड़ी समय बिताने के लिए बिना बिसात के ही, सिर्फ चालें बोलकर आपस में शतरंज की बाज़ियाँ खेला करते। करीब डेढ़ महीने बाद रशियन खिलाड़ियों को स्विट्जरलैंड के रास्ते अपने वतन लौटने की इजाजत मिल गई, पर बोगुल्युबोव चूंकि उस वक्त जर्मनी से थे, वहीं ट्रिबर्ग में रुक गए। आगे चलकर जर्मनी और स्वीडेन में कई प्रतियोगिताओं में खेले जिनमें एरन निमजोविच को हराने का श्रेय हासिल किया, अपने जेल वाले पड़ोसी अलेखिन से ड्रॉ कर अपनी धाक जमाई और पुरस्कार में काफी धन अर्जन भी किया। तब तक बोगुल्युबोव विश्व के सर्वाधिक समर्थ चैलेंजर के रूप में जाने जाने लगे थे।

प्रथम विश्वयुद्ध तो 1918 में समाप्त हो गया, पर बोगुल्युबोव अपने वतन रशिया नहीं लौटे। उन्होंने वही रह कर 1919 में बर्लिन तथा स्टॉकहोम की अंतर्राष्ट्रीय प्रतियोगिताएं जीतीं। 1920 में फिर स्टॉकहोम प्रतियोगिता जीती, 1921 में कील, 1922 में पिस्टनी जीती और कार्ल्सबड में प्रथम से तीसरे स्थान पर संयुक्त रूप से रहे। उन दिनों वे तत्कालीन विश्वविजेता जोस राउल कैपाब्लांका को चुनौती देने की तैयारी में लगे। पर उस महान  क्यूबन खिलाड़ी को चुनौती देना और परास्त कर पाना आसान न था। कारण था कि कैपाब्लांका सहित विश्व के शीर्ष खिलाड़ियों ने विश्व प्रतियोगिता की पारितोषिक राशि 10000 डालर रखे जाने के समझौते पर हरताक्षर कर दिया था। विश्वयुद्ध के परिणामों से टूटे-बदहाल जर्मनी में तब उतनी राशि का प्रबंध हो पाना असंभव था।

ट्रिबर्ग प्रवास बोगुल्युबोव के लिए भाग्यशाली रहा क्योंकि वहीं के एक स्कूल अध्यापक की बेटी फ्रियेडा से आँखें लड़ गईं और लगभग दो वर्षों बाद यानि 1920  में वे दोनों प्रणय सूत्र में बंध गए। पुरस्कार की रकम भी ख़ासी थी, जिसे बोगुल्युबोव ने अपनी पत्नी के पास भिजवा दिया। उनकी पत्नी ने समझदारी दिखाते हुये उस राशि से वहीं एक मकान खरीद लिया, जो उस संकट के दौर में अच्छा निवेश साबित हुआ। वह मकान ट्रिबर्ग आने वाले पर्यटकों के ठहरने के लिए किराये पर दिया जाने लगा, और इस प्रकार वह निवेश अच्छी आमदनी का जरिया बन गया। बाद में उनकी दो बेटियाँ भी हुईं।

बोगुल्युबोव ने वैसे तो जर्मन महिला से शादी कर ली थी, और उनका मकान भी जर्मनी में था, पर वे आधिकारिक रूप से रशियन नागरिक थे।  रशियन शतरंज के लिए बोगुल्युबोव जैसे बड़े खिलाड़ी के जर्मनी चले जाने से उपजा शून्य भरा जाना आसान न था। रशिया का शतरंज प्रशासन इस जुगत में जुटा कि कैसे बोगुल्युबोव को वापस रशिया बुलाया जाय। शतरंज से जुड़े वहाँ के एक शक्तिशाली नेता निकोलाई कृलेंको ने किसी प्रकार बोगुल्युबोव को वापस लौटने को मना लिया। लगभग 10 वर्षों तक जर्मनी रहने के बाद 1924 में वापस रशिया लौटे और सोवियत प्रतियोगिता जीत ली। अगले वर्ष अर्थात् 1925 में बोगुल्युबोव ने फिर से सोवियत प्रतियोगिता जीती। इतना ही नही, विख्यात मॉस्को अंतर्राष्ट्रीय प्रतियोगिता 1925 भी जीत ली। इस प्रतियोगिता में पूर्व विश्व विजेता इमैनुयल लास्कर, कैपाब्लांका, फ्रैंक मार्शल, अकीबा रूबेन्स्टीन और रिचर्ड रेटी जैसे विश्व के शीर्षस्थ खिलाड़ियों को पीछे छोड़ते हुये विजेता पद हासिल करना बोगुल्युबोव की सर्वोत्कृष्ट उपलबद्धियों में से एक मानी जाती है। इसी प्रतियोगिता में सिगबर्ट टैराश से खेली गयी उनकी बाजी जिसमें बोगुल्युबोव ने एक मोहरे का बलिदान देकर टैराश के बादशाह को खींच कर अपनी ओर चौथे खाने तक खींच कर मात करना एक यादगार बाजी रही थी। मॉस्को की प्रतियोगिता जीतने के बाद ब्रेसलौ,  जर्मनी में आयोजित जर्मन अंतर्राष्ट्रीय खुली प्रतियोगिता खेलने वे जर्मनी चले गए,जहां डेविड ब्रोन्स्टीन और एरन निम्जोविच को पीछे धकेलते हुये वह प्रतियोगिता भी जीत ली। इस उपलब्धि से बोगुल्युबोव इतिहास के वैसे एकमात्र खिलाड़ी बन गए जिसे एक साथ सोवियत चैंपियन और जर्मन चैंपियन का खिताब मिला हो।

1926 में बोगुल्युबोव ने रशिया छोड दिया और जर्मन नागरिकता लेने का आवेदन दिया। कहते हैं कि रशिया में विदेश जाकर अंतर्राष्ट्रीय प्रतियोगिता खेलने के लिए पहले फेडरेशन से अनुमति लेनी पड़ती थी। बहरहाल, जर्मनी आकर उन्होंने बर्लिन की अंतर्राष्ट्रीय प्रतियोगिता भी जीत ली जिसमें उन्होंने रूबेन्स्टीन तक को पीछे छोड़ दिया था। 1928  में किसिंजेन अंतर्राष्ट्रीय प्रतियोगिता में शानदार प्रदर्शन करते हुये एरन निम्जोविच तथा कैपाब्लांका से उपर रह कर प्रतियोगिता के विजेता बने, जिसमें भविष्य में विश्वविजेता बने मैक्स एयुवे से मिली शानदार जीत भी शामिल है।

सुधी पाठकों को मालूम हो कि 1924 में विश्व शतरंज महासंघ (फ़िडे ) की स्थापना पेरिस में की गई थी। सो उसके बाद की अंतर्राष्ट्रीय प्रतियोगिताएं फ़िडे द्वारा आयोजित की जाने लगीं।  परंतु विश्व शतरंज प्रतियोगिता का आयोजन नहीं हो पाया था। 1929 के अंत में बोगुल्युबोव ने फ़िडे विश्व प्रतियोगिता में मैक्स एयुवे को 10 मैच की शृंखला में हराया जिसे फिडे द्वारा आयोजित दूसरी अंतर्राष्ट्रीय प्रतियोगिता कहा जाता है। अब किसी को संदेह नहीं रह गया था कि बोगुल्युबोव ही विश्वविजेता को चुनौती देने का सामर्थ्य रखते हैं |  

आखिरकार 1929 में वह दिन आ ही गया जब बोगुल्युबोव को विश्वप्रतियोगिता में अलेक्ज़ांडर अलेखिन को चुनौती देनी थी।  इसका किस्सा भी काफी रोचक तो है ही, शायद सुधी पाठकों में से अधिकांश के लिए नवीन भी। तब विश्व विजेता के रूप में अलेक्ज़ांडर अलेखिन स्थापित थे क्योंकि उनहोंने क्यूबा के विश्वविजेता जोस राउल कैपाब्लांका को 1927 में न्यूयॉर्क में आयोजित विश्वप्रतियोगिता में हराया था। बताते चलें कि कैपाब्लांका 1921 में ही विश्व विजेता बन चुके थे जिन्हें चुनौती देकर अलेखिन ने यह खिताब अपने नाम किया था। 1922 में ही लंदन में विश्वविजेता कैपाब्लांका और विश्व के अन्य शीर्ष खिलाड़ियों ने सामूहिक रूप से ‘विश्वशतरंजप्रतियोगिता के लिए तैयार समझौते पर हस्ताक्षर किए थे, जिसमें यह तय किया गया था कि पुरस्कार राशि कम से कम 10 हजार डॉलर रहेगी जिसकी व्यवस्था चुनौती देने वाले खिलाड़ी की ओर से की जाएगी। यदि एक से ज्यादा चुनौती आए तो यह विश्व विजेता की मर्जी होगी कि वह किसकी चुनौती पहले स्वीकार करे, साथ ही, प्रतियोगिता का दिन, स्थान आदि भी वही तय करेगा | इसे प्रसिद्ध “लंदन समझौता ” कहा जाता है। सो यदि अलेखिन को कोई चुनौती देता, और उसे वे स्वीकार करते, तभी वह संभव था। साथ ही, उस प्रतियोगिता के लिए अलग से उतनी पुरस्कार राशि की व्यवस्था, जिस पर दोनों खिलाड़ी सहमत हों – आदि दुरूह कार्य थे।

बोगुल्युबोव की लोकप्रियता उन दिनों अपने चरम पर थी, विशेषकर जर्मनी में, जो उनका नया घर था। उन्हें वहाँ कुछ प्रायोजक मिल गए, रही सही कसर नीदरलैंड में रह रहे उनके प्रशंसकों ने पूरी कर दी। सो विश्वप्रतियोगिता के लिए नियम यह बनाया गया कि कुल 30 मैच होंगे जिसमें 15.5 अंक पहले अर्जित करने वाला विश्वविजेता कहलाएगा। शुरुआत तो अच्छी कही जायगी क्योंकि दोनों 3-3 अंक लेकर बराबरी पर बढ़े पर बाद में अलेखिन, जिन्हें विश्व के आजतक के महानतम खिलाड़ियों में गिना जाता है, बोगुल्युबोव पर धीरे-धीरे हावी होते गए। कहते हैं कि शनै: शनै: खेल का स्तर चमत्कारिक रूप से ऊंचा होता चला गया, जिसके प्रदर्शन में ज्यादा सफल रहे अलेखिन। अलेखिन ने वह प्रतियोगिता 15.5- 9.5 अंकों (11 जीत, 5 हार और 9 ड्रा ) के स्कोर पर जीती।

1934 में एक बार फिर अलेखिन –बोगुल्युबोव के बीच अनौपचारिक विश्वशतरंज प्रतियोगिता आयोजित कराई गई। पर वह प्रतियोगिता उतनी प्रसिद्धि पाने में विफल रही जितनी पहली प्रतियोगिता को मिली थी। अलेखिन ने वह प्रतियोगिता एक प्रकार से कहें तो, आसानी से (15.5 – 10.5 ; 10 जीत 3 हार और 15 ड्रॉ) जीत ली। अलेखिन से हारने के बाद भी बोगुल्युबोव विश्व के सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ियों में शुमार थे , और जर्मनी के तो सर्वोत्तम थे ही।

उपरोक्त विश्वप्रतियोगितओं में हार के बाद भी बोगुल्युबोव ने शीर्ष स्तर पर अपने पाँव मजबूती से जमाए रखे और 1931 और 1933 में जर्मन प्रतियोगिता भी जीती।  1931 में जर्मन टीम का नेतृत्व कराते हुये विश्व शतरंज ओलंपियाड, प्राग में पहली बिसात का रजत पदक जीता। ओलंपियाड में उनका प्रदर्शन 17 मैचों में 12.5 अंक (+9, = 7, -1)अविस्मरणीय रहा। रशिया की ओर से पहली बिसात पर खेल रहे अलेखिन ने बोगुल्युबोव से एक ज्यादा मैच खेले और 18 मैचों में 13.5 अंक लेकर स्वर्ण पदक जीता।

1933 में जब जर्मनी पर नाजियों की सत्ता आई तब, बोगुल्युबोव को जर्मन प्रतियोगिता में भाग लेने की मनाही हो गई साथ ही जर्मन राष्ट्रीय टीम में प्रशिक्षक या खिलाड़ी के रूप में शामिल होने पर पर रोक लगा दी गई, क्योंकि एक “राष्ट्रीय सोशलिस्ट” की परिभाषा के अनुसार बोगुल्युबोव भले ही जर्मन नागरिक बन गए थे, पर उनका ‘रक्त’ जर्मन नहीं था। फिर भी बोगुल्युबोव ने अपनी जर्मन टीम को तैयार करने और सुदृढ़ बनाने में अपना अमूल्य योगदान दिया। हालांकि यह स्पष्ट नहीं है कि एफिम द्मित्रिएविच बोगुल्युबोव नाजी विचारधारा के समर्थक थे भी या नहीं। एक ओर आन्द्रे शुल्त्ज ने अपनी किताब  ‘ द बिग बुक ऑफ वर्ल्ड चैम्पियनशिप “ में बताया है कि बोगुल्युबोव को सदैव नाजियों के नजदीक बताया गया। जैन्ड्वूर्ट प्रतियोगिता 1936 में बोगुल्युबोव ने अपनी बिसात के बगल में स्वस्तिक फ्लैग लगाया था। बोगुल्युबोव की जीवनी पर लिखी अपनी किताब ‘ द फेट ऑफ अ चेस प्लेयर’  में सरजेई सोलोवियोव ने एक घटना का जिक्र किया है कि “एक बार एक अस्पताल में चल रहे बोगुल्युबोव ‘साइमलटेनियस’ प्रदर्शनी मैच खेलते समय उनके पॉकेट पर लगे स्वस्तिक फ्लैग को वहां अचानक आ धमके घायल सैनिकों ने नोंच लिया था, तब से उन्होंने दोबारा ऐसा नहीं किया। 1938 में बोगुल्युबोव ने नेशनल सोशलिस्ट पार्टी की सदस्यता भी ली थी परंतु उन्होंने ऐसा इसलिए किया था ताकि उनकी बेटियों का विश्वविद्यालय में नामांकन हो सके।”

विश्व के सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ियों में एक इस खिलाड़ी का अपना दौर तब आया जब विश्व के महानतम खिलाड़ियों में शामिल कैपाब्लांका, अलेखिन जैसे प्रतिद्वंद्वी मौजूद थे। उनके खेल-काल में दो-दो विश्वयुद्ध की घटनाओं ने उनकी खेल प्रगति को बाधित किया सो अलग। न तो वे रशियन प्रशासन के चहेते रहे और न जर्मनी ने ही उन्हें पूरा अपना माना। बाद में, उनके रशिया छोड देने और जर्मनी में जा बसने की चिढ़ थी सो अलग। यहाँ तक कि गैरी कास्पारोव ने भी अपनी प्रसिद्ध पुस्तक “माई ग्रेट पृडिसेसर्स” के प्रथम भाग में पुराने दौर के महान खिलाड़ियों विलियम स्टीनिट्ज़, ईमैनुयल लास्कर, कैपाब्लांका और अलेखिन को केन्द्रित रखते हुये बोगुल्युबोव द्वारा खेली गईं लगभग 10 बाज़ियाँ दी हैं, पर यह जानकर हैरत होती है कि वे सारे वैसे गेम हैं जो बोगुल्युबोव ने हारे हैं। यहाँ तक कि दूसरे खण्ड में भी बोगुल्युबोव का एक गेम दिया है, पर वह भी वैसा ही, जिसमें मैक्स इयूवे जीते हैं। क्या बोगुल्युबोव ने उन महान खिलाड़ियों से जो भी गेम जीते, क्या उनकी नजर में उसका कोई मोल नहीं ? परंतु इससे क्या फर्क पड़ता है। जब कास्पारोव जैसे महारथी ने उन बाजियों को उद्धृत किया है तो यह तो जाहिर है कि वे बाज़ियाँ उच्चसतरीय खेल का प्रदर्शन करतीं होंगी। आपको यह भी जानकार दुख होगा कि फ़िडे ने जब 1950 में ग्रैंडमास्टर्स की पहली सूची जारी की तो उसमें बोगुल्युबोव का नाम तक नहीं था | बाद में, शायद अपनी भूल सुधारते हुये 1951 की सूची में उनका नाम ग्रैंडमास्टर के रूप में शामिल किया गया।

सच तो यह है कि बोगुल्युबोव एक सम्पूर्ण और “सेल्फ मेड” खिलाड़ी थे क्योंकि उन्होंने अपनी प्रतिभा को बिना किसी के सहायता के स्वयम विकसित किया था| आज भी उनके नाम पर “ बोगो इंडियन डिफेंस” उनकी निजी खोज है जो लोकप्रियता में ‘क्वींस गैम्बिट’ तथा ‘क्वींस इंडियन डिफेंस” के बाद तीसरे पायदान पर है। स्वभाव से हंसमुख और मज़ाकिया बोगुल्युबोव कहा करते थे कि “ सफ़ेद मोहरों से मैं इसलिए जीतता हूँ कि मैं सफ़ेद मोहरों से खेल रहा हूँ, जबकि काले मोहरों से खेलते समय मैं इसलिए जीतता हूँ कि मैं बोगुल्युबोव हूँ “। दूसरे विश्वयुद्ध के बाद जब उनका खेल ढलान पर था, तब भी उन्होंने कई अच्छी प्रदर्शन किए पर उनका ग्रैंड मास्टर खिताब मिलने का सुख ज्यादा दिन तक नहीं रहा और  63 वर्ष की आयु में,18 जून 1952 को ट्रिबर्ग , जर्मनी में उस महान खिलाड़ी का निधन हो गया।

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