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Bihar Election : नेताओं के वादों व चुनावी घोषणाओं में क्यों छूट जाते हैं खेल व खिलाड़ी

by Khel Dhaba
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शैलेन्द्र कुमार
पटना। वर्तमान में बिहार में विकास के और विकास करने के काफी ढ़िढोरे पिटे जा रहे हैं क्योंकि यहां चुनाव का बाजार गरम है। हर पार्टी और नेताओं के वादे और घोषणाओं की बाढ़ आ चुकी है। नौकरियां तो रेवड़ियों के भाव में बांटी जा रही हैं। कोई दस लाख तो कोई 19 लाख बांटा रहा है मगर कहां और कैसे यह किसी को पता नहीं ? साथ ही कोई कोरोना की वैक्सिन भी मुफ्त में देने की बात कह रहा है भले ही वैक्सिन का कोई अता-पता न हो। कहीं सात-निश्चय, तो कहीं परिवर्तन से संकल्प, तो कहीं बिहार फर्स्ट-बिहारी फर्स्ट…….. वगैरह, वगैरह के नारे बुलंद किये जा रहे हैं। हर वर्ग और हर तबके के लिए पिटारे खुले हैं और कुछ न कुछ सबों के लिए लेन-देन की बात है। मगर एक मुद्दा जो सभी वर्गों और सभी तबकों के लिए समान रूप से महत्वपूर्ण है एवं हमेशा अछूता रहा।  वह न तो कभी नेताओं के वादों में और न ही पार्टियों के घोषणा पत्र में जगह बना पाया और इस बार भी यह मुद्दा गौण ही है। जी हां हम बात कर रहे हैं राज्य में खेल, खेल मैदान, खेल संसाधन, खिलाड़ी और इस सबों के विकास की।

यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि किसी भी राष्ट्र या राज्य के विकास की गणना उसके खेल के विकास एवं उपलब्धियों से आंकी जा सकती है क्योंकि अंतरराष्ट्रीय व राष्ट्रीय स्तर पर जो देश व प्रदेश खेलों में अव्वल है निश्चित रूप से वह विकसित श्रेणी में भी है।

 एक आम धारणा है कि खेल सिर्फ खिलाड़ियों तक ही सीमित होता है मगर ऐसा नहीं है। एक तरफ तरफ तो खेल किसी भी देश और प्रदेश का नाम राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय फलक पर ऊंचा करता ही वहीं दूसरी तरफ उस देश व प्रदेश के लोगों के जीवन का हिस्सा भी होता है। खेल जहां हमें शारीरिक रूप से चुस्त-दुरुस्त व स्वस्थ रखता है तो वहीं रंग व भेद से हट कर टीम भावना से काम करने, हार व जीत में संयम, धैर्य व संतुलन बनाये रखने, लक्ष्य, मनोबल और मानसिक दृढ़ता के साथ काम करने की सीख देता है। यूं कहें खेल जीवन जीने में सहायक होता है।  

आज अवश्य एक बड़ा तबका इस हकीकत को बखूबी जान चुका है तभी तो सुबह और शाम लोग पार्कओं और सड़कों पर ही टहलते और योगासन नजर आ जायेंगे। मगर बच्चे आज भी खेल मैदान के अभाव तथा स्कूलों के पाठ्यक्रम व दिनचर्या से खेलों से दूर हो गए हैं और नतीजा हम सबों के सामने कम उम्र में उन्हें विभिन्न प्रकार की बीमारियां तथा कई अनहोनी घटनाएं भी देखने को मिल रही हैं। 

हम बात करें बिहार की तो राज्य में खेल संसाधनों में पहले से भी खराब स्थिति में चला गया। एक-दो बड़े-बड़े स्टेडियम जरूर बने हैं मगर इससे खेल का विकास नहीं हो सकता है। हम तभी खेलों में विकास कहेंगे जब हर बच्चे तक खेल संसाधन मुहैया और वह किसी न किसी खेल में भाग लेता दिखाई पड़े। खेल के विकास का पहला पायदान स्कूल व कॉलेज और उसके घर के आसपास का खेल मैदान से शुरू होता है। विडंबना यह है कि आज स्कूल व कॉलेज में खेल ग्राउंड खत्म हो चुके हैं तो वहीं मोहल्लों में खेल के ग्राउंड पार्क में तब्दील हो गए हैं। नतीजा यह रहा कि हमारी युवा पीढ़ी खेल से विमुख होती चली गई तो वहीं बच्चे मोबाइल और टीवी पर जम गए जिससे न उनमें शारीरिक व मानसिक दृढ़ता विकसित हो रही है और उनमें सामाजिकता ही विकसित हो रही है जो किसी समाज के लिए बहुत ही घातक है और राज्य व देश के लिए खेलने वाले खिलाड़ी पैदा लेना दूर की बात व जो हैं वे खेलों से विमुख होते जा रहे हैं।

वर्तमान स्वास्थ घटकों व युवाओं में खेलों के प्रति आकर्षण न देखते हुए एक वर्ष पूर्व देश में खेल दिवस के अवसर पर फिट इंडिया मूवमेंट कार्यक्रम लांच किया गया तथा लोगों को शारीरिक स्वस्थ रहने के लिए न सिर्फ प्रेरित किया गया बल्कि उसके फायदे भी गिनवाए गए।  मगर बच्चे, युवा और बुजुर्ग दौड़ कहां, कैसे और कब लगायेंगे यह अब भी एक बड़ा प्रश्न है।

जहां तक बिहार में खेल संसाधनों की बात करें तो पूरी तरह से नदारद है। न कोई स्टैंडर्ड पैमाने का स्टेडियम और न ही कोई अच्छा ट्रेनिंग सेंटर। हम नाज करते हैं उन स्टेडियमों और ट्रेनिंग सेंटरों पर जो अन्य राज्यों की तुलना में स्टेट लेवल का भी नहीं है। राज्य में ऐसा कोई स्टेडियम नहीं है जहां बड़े स्तर का कोई मैच कराया जा सके। जहां हो भी रहा है तो मजबूरी में। बड़े स्टेडियम के नाम लेने पर बिहार में मात्र तीन स्टेडियम है मोइनुल हक स्टेडियम, पाटलिपुत्र स्पोट्र्स कॉम्प्लेक्स और ऊर्जा स्टेडियम का नाम जेहन में आता। इनका स्टैंडर्ड क्या है यह सबको पता है पर न से हां भला। खैर इतने से भला क्या होने वाला है।

दूसरी बात यह है कि कहने को हर प्रखंड में स्टेडियम बनाये गए हैं पर वे किस हाल में हैं वह किसी से छूपा नहीं नहीं है। वे बने भी है कि नहीं यह भी पता नहीं है।

ट्रेनिंग सेंटर के नाम पर एकलव्य सेंटर। ये सेंटर किस प्रकार चलते हैं वह पूछने वाली बात नहीं है। इन सेंटरों में प्रशिक्षुओं को क्या सुविधा मिलती है इसकी मिसाल हमेशा अखबारों से लेकर सोशल मीडिया पर सुर्खियों में रहती है।

इस राज्य में न कोई प्रशिक्षक हैं और न ही कोई खेल पदाधिकारी। जो प्रशिक्षक बने वे बन गए साहेब। वे कोचिंग देने की बजाए फाइल निबटाने में लगे हैं। खिलाड़ियों को नौकरी तो जरूर मिली पर काफी पापड़ बेलने के बाद और उसके पैमाने हमेशा बदलते रहते हैं।

पिछले पांच साल में राजगीर में बनने वाले अंतरराष्ट्रीय स्टेडियम बनाने का ढ़िढोरा पिट रही सरकार उसे बना कर कब जनता को सौंपी को सौपेंगी यह भी अनिश्चित है। खेल विभाग के क्रिया कलाप भी किसे से छिपे नहीं है।

कुल मिला कर देखें तो बिहार खेल के हर क्षेत्र में देश के ज्यादात्तर राज्यों से काफी पीछे है। हमारे नेताजी यह जरूर कहते हैं कि यहां प्रतिभाओं की कमी नहीं पर उन्हें बढ़ाने की बात कोई नहीं करता। अगर बात करता तो अपने चुनावी चर्चा में इसे पूरी तरीके से जरूर शामिल करता है। खेल व खिलाड़ी के रहनुमाओं ने भी इस विषय को चुनावी चर्चा में शामिल कराने का प्रयास नहीं किया।

इन सारी चीजों के आकलन के बाद यही लगता है कि खेल सबों के जीवन के लिए महत्वपूर्ण है। यह जीवन जीने की कला सीखाता है। विकसित देशों या देश के कुछ राज्यों में शाम के समय सभी लोग खेल के मैदान में नजर आते हैं। इससे जहां स्वास्थ ठीक रहता है वहीं परिवार और राज्य के स्वास्थ्य पर खर्च या बजट को कम होता है। खेल हमारे श्रम की क्वालिटी और क्वांटिटी को भी बढ़ाता है। इसीलिए नेताजी इसे इग्नोर मत कीजिए।

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