पटना, 18 अगस्त। बिहार क्रिकेट का हाल इन दिनों कुछ यूँ है कि खिलाड़ी मैदान में नहीं, बल्कि बिहार क्रिकेट एसोसिएशन (BCA) की वेबसाइट पर नेट प्रैक्टिस कर रहे हैं। सबकी निगाहें टिकी हैं इस बात पर कि कब कैंप की तारीख निकलेगी। लेकिन तारीख की जगह केवल राजनीति के कैलेंडर ही बदल रहे हैं।
कहा जा रहा है कि जिनके हाथ में कमान है, उन्हें खिलाड़ियों से ज्यादा अगली बार फिर से कमान कैसे हासिल होगी, इसकी चिंता सता रही है। कैंप हो या न हो, जिलों में वोटरलिस्ट का पुनरीक्षण और नई कमेटियों की टीम चयन की प्रक्रिया धड़ल्ले से जारी है। खिलाड़ी भले ही बॉल-बैट खोज रहे हों, पर क्रिकेट रहनुमा चुनावी बल्ला घुमा रहे हैं।
क्रिकेट पंडित कहते हैं, “राजनीति करना है तो करिए, पर कम से कम खिलाड़ियों को बाउंड्री लाइन से बाहर मत फेंकिए।” वे तंज कसते हैं कि अब तो कर्मचारी भी खेल से ज़्यादा राजनीति की पिच पर विकेट ले रहे हैं। जिम्मेवारी तो उनकी थी, पर शायद अब वे भी ‘रणनीतिकार’ बन चुके हैं।
इस साल मैच का संचालन भले ही पहले की अपेक्षा अच्छे से हुआ हो, पर कैंप का सपना अधूरा ही रहने की संभावना है। खिलाड़ी मजबूरी में अपनी जेब से अकादमियों में पसीना बहा रहे हैं ताकि बिहार की इज़्ज़त थोड़ी बहुत बची रहे।
उधर, सुप्रीम कोर्ट द्वारा नियुक्त नए लोकपाल से विपक्ष की साँसों में फिर से ऑक्सीजन आ गई है। विपक्ष को उम्मीद है कि लोकपाल के बिहार आते ही खेल की राजनीति में नई बाज़ी जम जाएगी।
कुल मिलाकर, क्रिकेट यहाँ बल्ले-बॉल से नहीं, बैलट-बॉक्स से खेला जा रहा है। और परंपरा भी यही कहती है कि बिहार क्रिकेट में राजनीति का स्कोरकार्ड हमेशा खिलाड़ियों से भारी पड़ता है।
गौरतलब है कि इस वर्ष बिहार को चार आयु वर्गों रणजी ट्रॉफी, विजय हजारे ट्रॉफी, सीके नायडू ट्रॉफी और सीनियर महिला वनडे ट्रॉफी के प्लेट ग्रुप में खेलना है। प्लेट ग्रुप से एलीट ग्रुप में जाना पहले की अपेक्षा अब कठिन है इसीलिए चिंता ज्यादा है।