
पटना। बस एक परीक्षा दे दी होती तो यह शख्स आज ऊचाईयों पर होता। परीक्षा न देने की वजह क्या थी यह तो वह शख्स ही जाने। उस शख्स को इसका उतना गम नहीं जितना उनके गुरू व उनके साथ काम करने वालों को है। खैर इन सब बातों की चर्चा करना अब बेकार है। चर्चा उस शख्स की करते हैंजो इसके बाद भी ऊचाईयों को छूआ और आज बिहार फुटबॉल जगत में उसकी अपनी अलग पहचान है। जी हां हम बात कर रहे हैं बिहार के सीनियर फुटबॉल रेफरी जितेंद्र कुमार सिंह उर्फ जॉनी दा की। तो आइए जानते हैं उनके बारें में–
राजधानी के दरियापुर मोहल्ले में रहने वाले जितेंद्र कुमार सिंह स्वभाव से सरल और मृदुभाषी हैं। अपने कर्तव्य के प्रति निष्ठा रखने वाले जॉनी दा ने न तो मैदान पर और न ही उसके बाहर कभी सिद्धांतों से समझौता किया। पटना विश्वविद्यालय के वाणिज्य महाविद्यालय से इंटर तक पढ़ाई करने वाले जॉनी दा ने पहले पटना जिला जूनियर डिवीजन फुटबॉल लीग खेला। इसके बाद 1979 में बिस्कोमान की ओर से सीनियर डिवीजन फुटबॉल लीग में कदम रखा। 1979-80 में जूनियर नेशनल चैंपियनशिप में बिहार का प्रतिनिधित्व किया। बाद के दिनों में उनकी नौकरी बिस्कोमान में हो गई। उस दौर में बिस्कोमान की फुटबॉल टीम बिहार की प्रतिष्ठित फुटबॉल टीम मानी जाती थी और उसकी ओर से खेलना गर्व की बात थी। बिस्कोमान के उस समय के कोच राजेश हांसदा से जॉनी दा ने काफी कुछ सीखा और उन्हें उस समय में वे बेस्ट कोच मानते थे।



वर्ष 1983 में जॉनी दा ने रेफरी की भूमिका निभानी शुरू कर दी। उस जमाने में पटना में मरहूम ताहिर हुसैन, स्व. मानिक सेन गुप्ता, ग्यासुल हक, वाईएन पंडित, विजय कुमार सिन्हा जैसी मशहूर फुटबॉल रेफरी मौजूद थे। रेफरी के रूप में जॉनी दा अपना गुरू ग्यासुल हक को मानते हैं और उनसे ही प्रेरित होकर वे इसे अपनाया। ग्यासुल हक के बारे में जॉनी दा का कहना है कि वह व्यक्ति फुटबॉल के नियमों की एक किताब है।



जिस समय में जॉनी दा ने सीटी संभाली उस समय पटना जिला सीनियर डिवीजन फुटबॉल लीग में एक से बढ़कर एक दिग्गज खिलाड़ी मैदान में उतरते थे। ललन दुबे, देवेंद्र यादव, महेंद्र प्रसाद, सूरज साहनी, गोपाल प्रसाद, अरुण झा पर इन दिग्गज खिलाड़ियों को मैदान में टैकल करना जॉनी दा को पूरा आता था। 1989-90 तक जॉनी दा बिहार फुटबॉल जगत में बेहतरीन रेफरी के रूप में मशहूर हो गए। इस दौरान राष्ट्रीय रेफरी परीक्षा के लिए इनका नाम आया पर उन्होंने हिस्सा नहीं लिया। वजह क्या है वह जॉनी दा नहीं बताते।
उस समय के बिहार रेफरी बोर्ड के कर्ताधर्ता ग्यासुल हक जो एआईएफएफ के सर्वश्रेष्ठ रेफरी इंस्ट्रक्टर थे कहते हैं कि उस समय में बिहार में कई अच्छे रेफरी थे जिसमें मो निजाम, शांति गोपाल, एसके चटर्जी, मुश्ताक अली, सुरेंद्र बहादुर सिंह, अनवर हुसैन, मुरारी, शुबेदू मुखर्जी, एनबीआर राजू, सुनील मिश्रा, संजय कुमार सिन्हा, उमेश कुमार, अहमद हुसैन, जमील अख्तर, विनोद कुमार सिंह लेकिन उसमें जॉनी सर्वश्रेष्ठ थे। अगर जॉनी राष्ट्रीय परीक्षा दे दिये होते तो भारतीय मानचित्र पर छा जाते।


लगभग 26 साल के रेफरी कैरियर में इन्होंने 20 वर्षों तक मोइनुल हक कप (बिहार अंतर जिला फुटबॉल चैंपियनशिप) का सफल संचालन किया। ग्राउंड में इन्हें देखते ही खिलाड़ी सहम जाते थे। बिहार में इस अवधि में हुई कोई ऐसी बड़ी फुटबॉल प्रतियोगिता नहीं थी जिसमें जितेंद्र कुमार सिंह जॉनी ने अपनी काबिलियत की पहचान नहीं छोड़ी। प्रतियोगिता के आयोजक की रेफरी के रूप मे ंपहली पंसद जॉनी दा ही होते थे। श्रीकृष्ण गोल्ड कप, संजय गांधी गोल्ड कप, कर्पूरी ठाकुर गोल्ड कप, कार्तिक उरांव कप (गुमला), शहीद राजेंद्र कप, महात्मा गांधी कप (दानापुर) सब में इन्होंने निर्णायक की भूमिका अदा की। महात्मा गांधी कप में इन्हें आयोजन समिति द्वारा बेस्ट रेफरी का अवार्ड दिया गया था।
पटना में वर्ष 1996 में आयोजित एशियन स्कूल फुटबॉल चैंपियनशिप में कोरिया बनाम चाइना मैच में रेफरी की भूमिका अदा की और इसे अपने कैरियर का सबसे बड़ा और बेस्ट मैच मानते हैं। स्टेट रेफरी रहते हुए इन्होंने बिहार के बाहर ओड़िशा में कलिंगा कप, हिंडालको कप ऐसे कई टूर्नामेंटों में अपना प्रभाव छोड़ा।
एआईएफएफ के वरिष्ठ इंस्ट्रक्टर विनोद कुमार सिंह जो फीफा रेफरी भी थे कहते हैं कि वे लॉ ऑफ गेम के बारे में सोचते और समझते थे। जॉनी दा हमारे बड़े भाई ही नहीं अभिभावक समान है। वे कहते हैं कि उस परीक्षा का उन्हें गम भले न हो पर हमें तो है।

जॉनी दा ने अपने जीवन में काफी कठिनाईयों का सामना किया पर हंसते हुए। कुछ वर्ष पहले तक बिस्कोमान की हालत उतनी अच्छी नहीं थी। वेतन पर भी संकट आ जाता था पर इन सब परेशानियों के बाद उन्होंने अपने बच्चों की पढ़ाई-लिखाई में कोई कमी नहीं छोड़ी। उसी का नतीजा है कि आज उनका बेटी और बेटा सरकारी संस्थान पर अच्छे पद पर विराजमान है।
खैर जो भी हो जॉनी दा बिहार के युवा फुटबॉल रेफरियों के लिए एक प्रेरणा हैं। पटना ही नहीं बल्कि राज्य के रेफरी इनसे हमेशा कुछ न कुछ सीखते रहते हैं।
(लेखक फुटबॉल रेफरी व पटना फुटबॉल संघ के संयुक्त सचिव हैं)
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