बिहार के क्रिकेटप्रेमियों के हिस्से वैसे ही बड़े मैच कम आते हैं। और जब पटना के मोइनुल हक स्टेडियम में रणजी ट्रॉफी का नया सत्र शुरू हुआ, तो उम्मीद थी कि मैदान तालियों और जयकारों से गूंज उठेगा। लेकिन हुआ इसका उलट।
सुबह से ही लोग अपने पसंदीदा खिलाड़ियों को देखने का जोश लेकर पहुंचे, मगर गेट पर सख़्त पहरे थे। दर्शकों की एंट्री मना है, यह बोर्ड जैसे उम्मीदों पर ताला ठोक रहा था। बाहर खड़ी भीड़ सूरज के साथ तप रही थी-पसीने से लथपथ चेहरे, सूखे होंठ और आंखों में मायूसी। जो क्रिकेट देखने आया था वह मैदान के बाहर ही हारा हुआ लौट गया।
बहुत मिन्नतों और तर्कों के बाद जब दक्षिण-पूर्वी गेट से कुछ दर्शकों को अंदर जाने की इजाज़त मिली, तब तक धूप सिर पर चढ़ चुकी थी। भीषण गर्मी में पानी की तलाश में जो एक बार बाहर गया, वह दोबारा स्टैंड तक लौट नहीं पाया। रणजी जैसा आयोजन, मगर इंतज़ाम नदारद-मानो दर्शकों को प्रवेश देकर कोई बड़ा एहसान किया जा रहा हो।
एक वरिष्ठ खेल पत्रकार होने के नाते मैंने न जाने कितने मैचों की कवरेज की है, लेकिन इस बार जो लापरवाही प्लेट ग्रुप मैचों में दिखी, वह चौंकाने वाली थी। पिछले साल एलिट ग्रुप मुकाबलों में व्यवस्था अनुशासित और गरिमामय थी-दर्शकों और मीडिया दोनों के लिए। इस बार लगा जैसे बीसीए ने एलिट और प्लेट का फर्क सिर्फ मैदान पर नहीं, अपने बर्ताव में भी दिखा दिया।
मीडिया की दशा तो और बदतर थी। न छांव की व्यवस्था, न बैठने की जगह। कुछ जगहों पर तीन-चार छतरी गाड़ दिए गए, जैसे खानापूर्ति पूरी करनी हो। मीडिया मैनेजर से बात हुई तो उन्होंने आश्वासन दिया-जो बाद में खोखला निकला। एक छोर पर अफसरान ठंडे पेय का मजा ले रहे थे, तो दूसरे छोर पर पत्रकार धूप में झुलसते हुए कवरेज कर रहे थे।
यह नज़ारा बहुत कुछ कह गया-यहां न दर्शक मायने रखते हैं, न मीडिया। जो “प्लेट ग्रुप” में हैं, उन्हें प्लेट जैसा ही व्यवहार झेलना होगा-यह संदेश बीसीए ने खुलेआम दे दिया।
कभी-कभी लगता है, बिहार क्रिकेट का असली दर्द उसके खिलाड़ियों या मैदानों में नहीं, बल्कि उसके सिस्टम में छिपा है।
यहां खेल की रूह अब भी ज़िंदा है, मगर उसकी क़द्र करने वाले कम हैं।