
शैलेंद्र कुमार
पटना। जिनके सामने असहाय महसूस करते थे विपक्षी टीम के गोलकीपर। शॉट में इतनी ताकत होती थी कि सीधा गोलपोस्ट में। स्कूल से लेकर कालेज एवं विभिन्न क्लबों की ओर से खेलते हुए फुटबाल में अपनी खास पहचान बनाई। जिन्हें बिहार का खेल जगत आर लाल साहब के नाम से जानता है। वर्ष 2005 में ये हम सबों को छोड़कर सदा के लिए चले गए। अब तो बस इनकी यादें बची हैं। चलिए उन्हीं यादों के सहारे इनके बारे में जानते हैं-
स्व. आर लाल साहब का जन्म 6 जनवरी, 1925 को रांची में हुई थी। उनके पिता स्व. लाल बिहारी लाल प्रतिष्ठित वकील थे। लाल साहब का खेल के प्रति बचपन से था। रांची में शिक्षा ग्रहण करने के दौरान वे मोराबादी मैदान पर नियमित रूप से फुटबॉल खेला करते थे।
रांची फुटबॉल क्लब से अपने फुटबॉल खिलाड़ी का कैरियर शुरू करने वाले लाल साहब की प्रतिभा के सभी लोग कायल थे। राइट इन साइड के रूप में खेलने वाले लाल साहब चीते की तरह गेंद को तेजी के साथ विपक्षी टीम के गोल में प्रवेश कर जाते थे। देखने में दुबले-पतले लाल साह का शॉटी काफी पॉवर लिये हुए रहता था और सीधे गोलपोस्ट में पहुंचता था।

सन् 1940 से 1952 तक राज्य फुटबॉल के अद्वितीय नक्षत्र के रूप आर लाल साहब का सिक्का चमकता रहा। मैट्रिक की परीक्षा अच्छे नंबरों से पास कर पटना विश्वविद्यालय के प्रतिष्ठित कॉलेज बीएन कॉलेज में एडमिशन कराया। उस समय भारतीय खेल जगत की महान हस्ती पदम् श्री स्व. मोइनुल हक साहब बीएन कॉलेज के प्राचार्य थे। वे खेल व खिलाड़ियों के सच्चे हितैषी थे। उस समय बीएन कॉलेज फुटबॉल टीम की तूती बोलती थी। आर लाल साहब के साथ उस समय स्ट्राइकरों में क्रमश: अली इमाम, श्याम सुंदर दा के अलावा कई दिग्गज खिलाड़ी बीएन कॉलेज टीम में थे।

आर लाल साहब ने अपने खेल कैरियर के बारे में राजधानी में आयोजित खेल संगोष्ठी के दौरान कहा था कि हमलोग लगन और समर्पण के साथ खेलते थे। हमारे जमाने में आज की तरह सुविधा नहीं थी। अच्छे खिलाड़ी को पहले बहुत सुविधाएं मिलती थीं। खेल के दौरान पूरी टीम एकजुट होकर मैदान में उतरती थी। उन्होंने कहा था कि मैं खुशकिस्मत था कि मोइनुल हक साहब जैसे खेल प्रेमी का हमें साथ मिला।
बीएन कॉलेज में नामांकन के बाद भी आर लाल साहब ने पढ़ाई के साथ-साथ अपने फुटबॉल प्रेम को जारी रखा और पटना विश्वविद्यालय टीम का प्रतिनिधित्व किया। अपने मैचों के बारे में वे कहा करते थे कि अंग्रेज लोग मैच के दौरान हमलोगों को चोटग्रस्त करते थे। वे लोग बूट पहन कर खेलते थे। उस समय बूट साधारण खिलाड़ी के लिए बड़ी बात हुआ करती थी। मैं शुरू से ही बूट पहनकर मिलिट्री शील्ड फुटबॉल टूर्नामेंट, रांची में अंग्रेजों के खिलाफ खेलता था।

आईएफए शील्ड का संस्मरण करते हुए उन्होंने बताया था कि कैसे 0-3 से पिछड़ने के बाद भी हावड़ा यूनियन से इस मैच को 4-3 से जीता था।
वर्ष 1941 में प्री यूनिवर्सिटी पास करने के बाद नियमित रूप से परीक्षा पास करते चले गए। वर्ष 1949 में बिहार पुलिस में डीएसपी के रूप में ज्वाइन किया। इसके बाद उन्होंने 1964 में आईपीएस बने। पुलिस महकमे में रहने के दौरान खिलाड़ियों को पूरा प्रोत्साहित किया। इन्होंने अपने पदस्थापना के दौरान रांची, पटना, अररिया, गया, सारण, बेगूसराय, पूर्णिया जिला में खिलाड़ियों को पुलिस बल में नियुक्ति प्रदान कर बढ़ावा दिया था। इनमें कुछ खिलाड़ी तो अद्वितीय थे जैसे स्व. मिठुलाल साहनी, शैलेश मन्ना, बलदेव, बेंजामिन लाकड़ा, ई रुंडा, स्व. राघो सिंह, गोविंदा, विधान चंद्र प्रमुख हैं। स्व. मिठूलाल साहनी अपने उम्र के साठवें दशक में भी स्व. श्याम दा की तरह ही मैदान पर खेलने उतर जाते थे।

आर लाल साहब ने अपने सेवाकाल के दौरान खेल को पूरा प्रोत्साहित किया। वर्ष 1983 में पुलिस उप महानिरीक्षक (डीआईजी) के पद से सेवानिवृत होने के बाद भी अपने आप को चलायमान बनाये रखा। इसका सबसे बड़ा कारण था कि वे शारीरिक रूप से तंदरुस्त थे। उनके ऊपर मोटापा कभी हावी नहीं हो सका।

सेवानिवृत के बाद वे बिहार ओलंपिक संघ, बिहार फुटबॉल संघ, बिहार वॉलीबॉल संघ, बिहार हॉकी संघ और पीएए में शीर्ष पद पर विराजमान रहे। स्व. आर लाल साहब, स्व. सैयद एजाज हुसैन और स्व. अर्जुन विक्रम शाह की तिकड़ी बिहार खेल जगत को काफी ऊंचाईयों पर ले गई। आर लाल साहब को राष्ट्रपति पुरस्कार समेत कई अन्य सम्मान से नवाजा गया है।आर लाल साहब के इस दुनिया से चले जाने के बाद उनके पुत्र प्रदीप कुमार (सेवानिवृत आईएएस) भी खेल प्रशासक रहे और खेल के विकास में लगे हुए हैं।
