अरविंद कुमार सिन्हा, फिडे मास्टर
किस्मत की मार देखिये, कहां जा के टूटी है कमन्द, दो-चार हाथ जबकि लबे-बाम रह गया! ठीक ऐसी ही किस्मत रही आज की चर्चा के नायक खिलाड़ी डेविड लोनोविच ब्रोन्स्टीन की, जो विश्व शतरंज प्रतियोगिता के फाइनल मैच में विश्व विजेता मिखाईल बोटविनिक से बराबर स्कोर (12-12) लाकर भी, विश्व विजेता का खिताब नहीं ले पाये। नियमानुसार, विश्व विजेता को चुनौती देने वाले अर्थात चैलेंजर को 24 मैचों के सीरीज में विश्व विजेता से अधिक अंक लाना अनिवार्य था। यानि 12.5 अंक लाने पर ही विश्व विजेता पद मिलता, और यदि अंक बराबर रहे तो चुनौती विफल मानी जाती और विश्व विजेता का खिताब पूर्व विश्व विजेता की ही थाती बनी रहती।
गरीब यहूदी माता-पिता की संतान ब्रोन्स्टीन का जन्म 19 फरवरी 1924 को बिला सर्वक्वा, यूक्रेन में हुआ जिसने छ: वर्ष की उम्र में अपने दादा से शतरंज सीखा। तेज-दिमाग ब्रोंस्टीन शीघ्र ही यूक्रेन की राजधानी कीव प्रवास के दौरान उस युवा ने वहां के नामचीन अंतर्राष्ट्रीय मास्टर अलेक्ज़ेंडर कोंस्टैनटीनों से शतरंज के गुर सीखे और मात्र 15 वर्ष की आयु में ही सोवियत मास्टर बन गए। यूक्रेनियन शतरंज प्रतियोगिता में विजेता बने आईजैक बोलेसलावस्की के साथ उपविजेता बनना कोई सहज उपलबद्धि नहीं थी। 1941 में हाई स्कूल पास करने के बाद डेविड आगे गणित पढ़ना चाहते थे पर दुर्भाग्य से 22 जून 1941 को जर्मन सेना ने रूस पर आक्रमण कर दिया, दूसरा विश्वयुद्ध शुरू हो गया और सब कुछ ठप्प हो गया। उस दौर में रूसी नागरिकों के लिए जरूरी मिलिट्री सर्विस में भले ही उनकी कमजोर दृष्टि के कारण मिलिट्री सर्विस से छुटकारा भले ही मिला गया, पर सेना के युद्ध संबंधी अन्य काम जैसे बमबारी से टूटे मकानों की मरम्मत, किरानीगिरी या मजदूरी जैसे काम करने पड़े।
बहरहाल, विश्व युद्ध समाप्त होने के बाद ब्रोन्स्टीन ने लेनिनग्राद पोलिटेकनिक इंन्स्टीट्यूट में लगभग एक साल पढ़ाई की। अपने जिगरी दोस्तों में ‘डेविक’ नाम से प्रसिद्ध ब्रोन्स्टीन का दुर्भाग्य ही कहा जायगा कि जब वे मात्र 11 वर्ष के थे तब उनके पिता आई बी ब्रोन्स्टीन को NKVD (रूसी सीक्रेट सर्विस, जिसे बाद में के जी बी के नाम से जाना गया) ने “उन किसानों को समर्थन देने, जो भ्रष्ट अधिकारियों की गिरफ्त में थे” के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया। लगभग 7 वर्षों तक जेल में रहने के बाद लिखित रूप से आईन्दा ऐसा न करने के वादे के साथ, उन्हें रिहा किया गया। पर कहते हैं कि ऐसा कुछ था नहीं , शायद अपदस्थ और अपमानित किए गए रूसी कम्यूनिस्ट नेता लियो ट्रोत्स्की (ट्रोत्स्की का पारिवारिक टाईटिल भी ब्रोन्स्टीन था) के संबंधी होने के संदेह में उनके पिता को जेल में ठूंस दिया गया था।
1944 में जर्मन सेना के रूस से खदेड़े जाने के बाद जब स्थितियां सामान्य होने लगीं तब ब्रोन्स्टीन ने सोवियत संघ की सेमीफाइनल प्रतियोगिता, बाकू में खेल कर चौथा स्थान प्राप्त किया और फाइनल सोवियत प्रतियोगिता के लिए चुन लिए गए। उनके इस प्रदर्शन ने एक संपन्न रूसी शतरंज प्रेमी बोरिस वेंस्टीन को काफी प्रभावित किया। बाद में वही बोरिस, डेविड ब्रोन्स्टीन के संरक्षक बने रहे। वैसे बोरिस वेंस्टीन न तो कम्युनिस्ट पार्टी के शक्तिशाली नेता थे और न प्रशासन पर उनकी बहुत पकड़ थी, परन्तु उनका साथ और प्रभाव ब्रोन्स्टीन के लिए सुरक्षा कवच तो बन ही गया था। वे ब्रोन्स्टीन को कीव से काम छुड़वा कर मास्को ले आए और स्टालिनग्राद में अपनी एक बंद पड़ी स्टील फैक्ट्री को चालू कर, काम दे दिया। सोवियत प्रतियोगिता 1944 के फाइनल में यद्यपि ब्रोन्स्टीन को 15वां स्थान ही मिला, परंतु उनकी विश्वविजेता मिखाईल बोटविनिक से हुई बाजी में मिली दमदार जीत से ब्रोन्स्टीन का नाम सोवियत संघ के शीर्ष खिलाड़ियों में खिल गया।
अगले वर्ष 1945 के सोवियतसंघ प्रतियोगिता में तीसरा स्थान पाकर ब्रोन्स्टीन सोवियत संघ की टीम में आ गए। इसका दूसरा लाभ यह मिला कि अब ब्रोन्स्टीन को अंतर्राष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में न सिर्फ खेलने का अवसर मिला बल्कि वहाँ उत्कृष्ट प्रदर्शन भी किया। 1948 में विश्व शतरंज महासंघ (फ़िडे) द्वारा डेविड ब्रोन्स्टीन को, जो अभी ग्रैंडमास्टर नहीं बन पाये थे, 1948 साल्ट्स्योबडेन में हुये इंटरजोनल प्रतियोगिता में खेलने के लिए विशेष निमंत्रण मिलना ऐसा सम्मान था जो बिरलों को नसीब होता है। ब्रोन्स्टीन ने वह इंटर-ज़ोनल जीत कर फ़िडे के उस निर्णय को सही साबित कर दिखाया। उसी इंटर ज़ोनल के विजय के आधार पर ब्रोन्स्टीन को सोवियत ग्रैंडमास्टर का खिताब तो मिला ही, अगले वर्ष 1949 में अंतर्राष्ट्रीय ग्रैंडमास्टर का खिताब भी मिल गया।
उत्साह से लबरेज़, नाटे कद के, गंजे से अनाकर्षक युवा ब्रोन्स्टीन को अब विश्व विजेता मिखाईल बोटविनिक को विजेता पद से हटाने के लिए अपनी उपयुक्त पात्रता साबित करनी थी। जिसके लिए ब्रोन्स्टीन ने सोवियत संघ की प्रतियोगिता लगातार 1948 और 1949 में जीती, बुडापेस्ट में आयोजित 1950 के कैंडिडेट्स प्रतियोगिता जीती, यहां तक कि बाद के प्लेऑफ मैच में भी धमाकेदार जीत दर्ज की। अब कोई संदेह नहीं रह गया था कि डेविड ब्रोनस्टीन ही मिखाईल बोटविनिक के चैलेंजर होंगे।
1951 में आखिरकार वह दिन आ ही गया जब विश्वविजेता पद के लिए ब्रोन्स्टीन की भिड़ंत बोटविनिक से होने वाली थी। विश्व प्रतियोगिता में कुल 24 मैचों के सीरीज होने थे। 21 वें चक्र तक बराबरी रही। 22वां चक्र शुरू हो गया था, अब विश्व विजेता का खिताब पाने के लिए अब या तो कोई एक मैच जीतना था या बाकी दो मैच ड्रॉ करने थे। चल रहे खेल में भी थोड़ी अच्छी स्थिति में यदि कोई था, तो वह थे ब्रोन्स्टीन। 22वें चक्र में ब्रोन्स्टीन ने बोटविनिक के डच डिफेंस के खेल में इतना सुंदर संयोजन और गहरी सोच का प्रदर्शन किया कि बोटविनिक बस देखेते ही रह गए और 38वीं चाल में हार माननी पड़ी, जिससे ब्रोस्टीन को सीधे एक अंक की बढ़त मिल गई। अब दो ही मैच बाकी थे जिसे बस ड्रॉ भर करना था। परंतु ब्रोन्स्टीन 23वीं बाजी कड़े संघर्ष के बावजूद हार गए और अंतिम, 24वीं बाजी ड्रॉ हो गई जिससे दोनों खिलाड़ियों का स्कोर बराबर-बराबर (12-12) रह गया। नतीजा हुआ कि विश्वविजेता का खिताब बोटविनिक के पास ही रह गया। कहते हैं कि सोवियत सरकार का दवाब था कि खिताब बोटविनिक के पास ही रहे। हालांकि 1993 में दिये गए अपने साक्षात्कार में ब्रोन्स्टीन ने यह स्वीकारा था कि “ उन पर ऐसा कोई सीधा दवाब नहीं था’। परंतु लोगों का मानना है कि बचपन में पिता को मिली सात वर्षों की जेल का मनोवैज्ञानिक दवाब तो था ही। बाद में ब्रोन्स्टीन ने अपनी बात यह कहते हुये समाप्त की कि “उन्हें लगा कि शायद जीत जाने से उनपर गंभीर मुसीबतें आ सकतीं थीं, लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि मैं जानबूझ कर हारा”।
हालांकि मिखाईल बोटविनिक ने उस मैच सीरीज पर अपनी टिप्पणी में ब्रोस्टीन की उत्कृष्ट खेल प्रतिभा को श्रेय न देते हुये लिखा है कि “ ब्रोन्स्टीन की कमी रही कि उन्होंने अंत खेल के तकनीकी पक्ष को उतना महत्व नहीं दिया और “ सिम्प्ल पोजीशन’ को खेलने में उनकी योग्यता उतनी नहीं रही “। सच में, बोटविनिक ने पांच में चार वैसे मैच जीते थे जो 40 चालों पर खेल स्थगन के बाद सुबह में खेले गए थे। खेल-स्थगन के बाद थमी बाजी में यदि रत्ती भर भी तकनीकी लाभ की संभावना होती तो उसकी तलाश उस खेल के विश्लेषण से की जा सकती थी, जिसके लिए सहयोगियों का साथ लिया जा सकता था। जाहिर है, कि मंथन/विश्लेषण से छन कर निकला तकनीकी लाभ अंत खेल में भुनाया जा सकता था। जबकि दूसरी ओर ब्रोन्स्टीन ने पांच में से चार बाजियों में अपने कलात्मक खेल और गहरे संयोजन और गणना कौशल का प्रदर्शन कर बाज़ियाँ जीतीं थीं। अलबत्ता, ब्रोन्स्टीन को छठी बाजी की हार मंहगी पड़ गई जिसमें उनका प्रदर्शन उस स्तर का नहीं रहा था।
बहरहाल, ब्रोन्स्टीन की कोशिश जारी रही और अगली 1953 की इंटरज़ोनल प्रतियोगिता, जो ज्यूरिख (िस्वटजरलैंड) में हुई, में पूरे मैच भी खेले भी पर रूस के पॉल केरेस और अमेरिका के रेशेव्स्की के बराबर स्कोर पर चौथा स्थान ही मिला। उन सबों से आगे 2 अंक की बढ़त लेकर रूस के ही वैसीली स्माइस्लोव थे जो चैलेंजर बने और फाइनल में विश्व विजेता बोटविनिक से खेले। आपको याद हो कि इसी कैन्डिडेट्स मैच में आगे चलकर रूसी खिलाड़ियो की आपसी साँठ-गांठ के आरोप लगे थे जिसकी चर्चा सैमुयल हर्मन रेशेव्स्की की कहानी में हो चुकी है। हालांकि ब्रोन्स्टीन ने न तो खुले तौर पर आम जनता के बीच, मौखिक या लिखित रूप में इस साँठ-गांठ की कभी पुष्टि की, परंतु ब्रोन्स्टीन ने अपनी अंतिम पुस्तक, जो उनकी मृत्यु (2006) के कुछ ही दिन बाद 2007 में छपी, में बताया है कि केरेस और ब्रोन्स्टीन को, स्माइस्लोव के साथ बाजी ड्रा करनी पड़ी थी ताकि कोई रूसी खिलाड़ी ही चैलेंजर बने, न कि रेशेव्स्की, जो अमेरिकन थे। कहा तो यहाँ तक जाता है कि पॉल केरेस और डेविड ब्रोन्स्टीन के मुक़ाबले वैसीली स्माइस्लोव को इसलिए आगे बढ़ाया गया कि वे खाँटी रशियन थे , जबकि केरेस (स्टोनियन) और ब्रोन्स्टीन (यहूदी-यूक्रेनियन) थे।
बाद के वर्षों में भी ब्रोन्स्टीन ने कई इंटरज़ोनल तथा कैन्डिडेट्स खेले पर वह पिछला मुकाम यानि चैलेंजर बनना, फिर कभी नसीब नहीं हो सका। गोथेनबर्ग (स्वीडेन) 1956 के इंटर ज़ोनल में ब्रोन्स्टीन सीडेड थे, खेले भी, विजेता भी बने, पर आगे कैन्डिडेट्स टूर्नामेंट में अपने पिछले मुकाम को हासिल नहीं कर पाये। वैसे 1973 का इंटरजोनल उनका आखिरी अंतरराष्ट्रीय टूर्नामेंट कहा जा सकता है। ब्रोन्स्टीन ने शतरंज ओलंपियाड में सोवियत संघ का प्रतिनिधित्व लगातार 1952, 1954,1956 और 1958 में किया और प्रत्येक ओलंपियाड में बोर्ड प्राईज़ जीतने का गौरव कोई साधारण उपलब्धि नहीं है क्योंकि ब्रोन्स्टीन, अपने 49 मैचों में सिर्फ एक की मैच हारे और सोवियत टीम को चार बार स्वर्ण पदक दिलाया था। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उनकी अन्य उपलब्धियों में – हेस्टिंग्स 1953-54; बेलग्रेड 1954; गोथा 1957; मॉस्को 1959; सोमबैथेली 1966; पूर्वी बर्लिन 1968; द्नेप्रोपेट्रोव्स्क 1970; सराएवो 1971;संडोमियर्ज 1976;इवोनिक द्रोज 1976; बुडापेस्ट 1977; और जुमाला 1978 रहे हैं जिनमें ब्रोन्स्टीन विजयी रहे। उनके इतने लंबे और उपलबद्धियों से सराबोर सफल शतरंज जीवन और शतरंज में उनके योगदान के सम्मान स्वरूप डेविड ब्रोन्स्टीन को विश्व शतरंज के “हॉल ऑफ फेम” में स्थान दिया गया है।
डेविड ब्रोन्स्टीन के शतरंज को उनके सहज ज्ञान के लिए याद किया जाता है। आक्रामक और सुरक्षात्मक खेल का मिश्रण कहें तो बात आसानी से समझ में आएगी। ब्रोन्स्टीन ने स्वयं स्वीकारा है कि उनका स्टाईल आक्रामक खिलाड़ी मिखाईल टाल और सुरक्षात्मक खेल के लिए मशहूर टाईग्रान पेट्रोशियन के कहीं बीच में ठहरता है। ब्रोन्स्टीन को कई आलोकप्रिय से हो गए ओपेनिंग का शिल्पकार माना जाता है जिससे वे आज भी लोकप्रिय बने हुए हैं। किंग्स इंडियन डिफेंस, किंग्स गैम्बिट आदि ओपेनिंग पर उनकी रचना कालातीत कही जा सकती है। कैरो-कान डिफेंस का ब्रोन्स्टीन-लार्सन वैरिएशन तथा स्कैंडीनेवियन डिफेंस का ब्रोन्स्टीन वैरियशन तो उन्हीं के नाम पर है। उसी कड़ी में सबसे ऊपर ब्रोन्स्टीन द्वारा लिखी गई “ज्यूरिख इंटरनेशनल शतरंज टूर्नामेंट 1953” उनकी अमर रचना है। अमर इसलिए कि वह रूसी भाषा की पुस्तक हाथों हाथ बिक गईं और जब उसका अंग्रेजी अनुवाद 1979 में आया तब जाकर सोवियत संघ से बाहर के लोग यह पहली बार जान सके कि ग्रैंडमास्टर की तैयारी,नीतियाँ, भिन्न-भिन्न स्थितियों में उनकी स्ट्रेटेजी आदि कैसे तय की जातीं हैं। बाहरी दुनियाँ के लिए तिलिस्मी रहस्य ही था जिसे अपनी पुरतक में ब्रोन्स्टीन ने यह सब खोल कर बताया है। ब्रोन्स्टीन शतरंज में कल्पनाशीलता, रचनात्मकता और कलात्मक खूबसूरती के पक्षधर थे, न कि ओपनिंग और उससे निकले मानक स्थितियों से निबटने की पूर्व तैयारी के बल पर खेल जीतने के।
सुधी पाठकों के लाभार्थ डिमीट्री स्टाखोव द्वारा 2003 में लिए गए साक्षात्कार, जिसका अङ्ग्रेज़ी अनुवाद अमेरिका के प्रो मार्क टेलर ने किया है, का वह अंश उद्धृत है जो शतरंज पर जीनियस ब्रोन्स्टीन के सहज ज्ञान और विशिष्ट सोच का परिचायक है। यह पूछे जाने पर कि “आप नए शौकिया खिलाड़ियों के लिए क्या संदेश देना चाहेंगे? ब्रोन्स्टीन ने कहा “ नए खिलाड़ी इस भ्रम में जीते हैं कि शतरंज में अपार संभावनाएं होतीं हैं। वह बिसात पर देखता है कि न जाने कितनी सारी ऐसी चालें हैं जो चली जा सकतीं हैं, परंतु ऐसा है नहीं। पैदल सिर्फ आगे चला जा सकता है, वैसे ही अन्य मोहरे भी अपने बंदिश में ही चल सकते हैं। ऐसा लगता है कि लाखों संयोजन (combination) की संभावनाएं हैं,परंतु उनमें से अधिकतर निरर्थक होतीं हैं। शतरंज उन निहित लाखों-करोड़ों निरर्थक संभावनाओं के विशाल ढेर में से एक सार्थक चाल तलाशने का नाम है। एक परिस्थिति से निबटने के कई मार्ग हो सकते हैं, पीआर उनमें से प्रत्येक की अपनी कमजोरियाँ भी होंगीं। वास्तविक जीवन में आप संकट का समय काट सकते हैं पर शतरंज में आपको चाल देनी ही होती है, वह भी अपने प्रतिद्वंदी के नजरिए और मन को समझते हुये।”
ब्रोन्स्टीन ने तीन शादियाँ की थीं जिनमें आखिरी शादी अपने सीनियर खिलाड़ी ग्रैंडमास्टर आइजैक बोलेसलावस्की की बेटी तातियाना बोलेस्लाव्स्क्या से हुई थी। बोटविनिक के साथ खेले गए विश्व शतरंज प्रतियोगिता के छठे चक्र में ब्रोन्स्टीन ने आसानी से ड्रा हो सकने वाली बाजी गंवा दी थी। गेन्ना सोसेंस्को लिखित पुस्तक “ डेविड ब्रोन्स्टीन का उत्थान और पतन” मे छठी बाजी की हार के बारे में बोंस्टीन के हवाले से लिखा है कि “उनकी पहली पत्नी ओल्गा इग्नेतिविया से मैच से पूर्व हुई झड़प के कारण उनकी एकाग्रता में कमी आ गई थी”। उसी प्रकार, बोटविनिक से हुई हार के संबंध में ब्रोन्स्टीन ने टॉम फार्सटर्नबर्ग के साथ मिलकर लिखी अपनी किताब “ द सोर्सरर्स अपेरेंटिस “ में विश्वासपूर्वक बताया है कि “विश्व विजेता न बनने की ख़ासी वजह थी, क्योंकि विश्वविजेता बनने का मतलब था, सोवियत नौकरशाही के साथ होकर उनसे जुड़ी कई जिम्मेवारियों का बोझ लेना जो उनके व्यक्तिगत चरित्र से मेल नहीं खाता था।” यह भी कहा कि “पता नहीं क्यों लोग सिर्फ विश्वविजेता को ही सम्मान देते हैं बाकी को नहीं जबकि सभी शतरंज ही खेलते हैं।” उनका आशय था कि कद्र जीत के आधार पर नहीं बल्कि खेल कौशल की होनी चाहिए। जो भी हो, हाथ आए विश्वविजेता का खिताब सरक जाने की कसक ब्रोन्स्टीन के दिलो-दिमाग पर इस कदर छाई रही कि “बाद के दिनों में सिर्फ अपनी और उस विश्वप्रतियोगिता की बात करने की सनक समा गई थी जिससे उनके व्यक्तित्व में अहं भाव का एहसास होता था।”
आपको याद हो, जब 1976 मे विक्टर कोर्च्नोय ने सोवियत संघ छोड कर पश्चिमी दुनियाँ का रूख किया तो अन्य रूसी ग्रैंडमास्टर सहित ब्रोन्स्टीन से भी कोर्च्नोय की संयुक्त रूप से लिखित भर्त्सना करने को कहा गया। दृढ़ निश्चयी ब्रोन्स्टीन ने ऐसा नहीं किया, जिससे नाराज रूसी नौकरशाही ने दण्ड स्वरूप उन्हें शीर्ष ग्रैंडमास्टर्स के रूप में मिलने वाली मासिक वृत्ति (stipend) तक बंद कर दी। इसके अतिरिक्त, सोवियत संघ की शीर्ष प्रतियोगिताओं में भाग लेने पर रोक तो लगाई ही , साल में एक से ज्यादा बार रूस से बाहर जाकर खेलने पर भी रोक लगा दी। ब्रोन्स्टीन पर विदेश जाकर खेलने पर यह रोक लगभग 13 वर्षों तक रही। आपको यह जान कर हैरत होगी कि बोरिस गुलको, स्पासकी और बोटविनिक ने भी संयुक्त भर्त्सना पत्र पर हस्ताक्षर नहीं किए थे, पर सजा सिर्फ ब्रोन्स्टीन को भुगतनी पड़ी।
शतरंज के इस अनूठे जादूगर का निधन 82 वर्ष की आयु में 2006 दिसंबर को मिंस्क, बेलारूस में हो गया, पर शतरंज में उनके योगदान, उनकी अमूल्य कृतियाँ, अभिज्ञान भरा कलात्मक खेल और विभिन्न ओपनिंग में किए गए शिल्प-सुधार सदियों तक अमर रहेंगे।