
शैलेन्द्र कुमार
पटना। लंबी आयु के कारण कुछ ही लोगों को याद किया जाता है। कम उम्र में ज्यादा नाम कमानेवाले इंसान को फक्र से याद करनेवाला इंसान गौरवान्वित महसूस करता है। ऐसी ही शख्सियत थे स्व. ताहिर हुसैन साहब। इनके अच्छे कारनामों से ऊपरवाला इतना अधिक खुश हुआ कि सिर्फ 49 साल की उम्र में हर दिल अजीज नेक इंसान फुटबॉल रेफरी को अपने पास बुला लिया।
10 जनवरी, 1937 को बाकरगंज के मध्यम वर्गीय परिवार में इनका जन्म हुआ था। खेल के प्रति इनकी अभिरुचि शुरू से ही थी। घर के नजदीक ऐतिहासिक गांधी मैदान होने का फायदा इन्होंने उस दौर के साथियों के साथ उठाया। तब क्रिकेट का इतना चलन नहीं था। वह फुटबॉल लिए और चल देते थे खेलने। उन्होंने 1953 में मैट्रिक टीके घोष एकेडमी से उत्तीर्ण किया था। देश के प्रथम राष्ट्रपति देशरत्न डा. राजेन्द्र प्रसाद ने भी स्कूली शिक्षा टीके घोष एकेडमी में ही ग्रहण किया था।



ताहिर परिवार के पास संघर्ष के सिवाय और कोई रास्ता न तब था और ना ही अब है। स्कूल में पढ़ाई के दौरान ही वे फुटबॉल के दीवाने हो गये थे। वे उस समय स्कूली स्तर की चर्चित टूर्नामेंटों क्रमश: फोकस कप और इंग्लिश शील्ड में टी.के. घोष एकेडमी की ओर से खेले। मैट्रिक पास करने के उपरांत घर के नजदीक बी.एन.कॉलेज में आईए में नामांकन कराने के बावजूद खेलना नहीं छोड़ा। सांवले रंग के हट्ठे-कट्ठे ताहिर हुसैन ने अपने आपको गोलकीपर के पॉजीशन से खेलना ही सबसे उपर्युक्त समझा। वे एक सफल गोलकीपर के रूप में उभर चुके थे। पटना विश्वविद्यालय के साथ-साथ बी.एन.कॉलेज का प्रतिनिधित्व एक गोलकीपर की हैसियत से किया। इनमें अच्छे गोलकीपर के तमाम गुण मौजूद थे। राजधानी की प्रतिष्ठित पीएफसी (पटना फुटबॉल क्लब) का दामन थाम कर लीग में खेले।



उनमें काई निर्णय लेने में हिचकिचाहट नहीं होती थी। उन्हें लगा कि अब मैच खेलने से अच्छा होगा कि मैदान पर मौजूद 22 खिलाडिय़ों को सिटी बजाके नियंत्रित किया जाय। नतीजा हुआ कि कम उम्र में ही फुटबॉल के रेफरी बन गये। पढ़ाई भी अपना जारी रखा और आई.ए. की परीक्षा पास करने के बाद स्नात्तक (बी.ए.) की पढ़ाई भी करते रहे। वे शांत स्वभाव व मिलनसार व्यक्तित्व के स्वामी थे। खेल उनके रग-रग में था। इन्होंने फुटबॉल का राष्ट्रीय दर्जा प्राप्त कर इतिहास रचा था। वे पहले बिहारी थे, जिन्हें यह दर्जा प्राप्त हुआ था। सभी खेल को बराबर का दर्जा देनेवाले ताहिर साहब एथलेटिक्स, हॉकी, वॉलीबॉल के भी राज्यस्तरीय तकनीकी अधिकारी बने।
सन् 1959 में इन्होंने गवर्मेंट फिजिकल कॉलेज राजेन्द्र नगर के सर्टिफिकेट कोर्स की परीक्षा में प्रथम श्रेणी पाकर पीटीआई बनने की योग्यता हासिल कर ली थी। इसी सर्टिफिकेट के आधार पर मृदुभाषी ताहिर साहब पटना कॉलेज में सहायक पीटीआई बने। लेकिन, वे जयादा दिन तक पटना कॉलेज में सेवा नहीं दे पाये। वे बी.एन.कॉलेज के पीटीआई बन गये।
ताहिर साहब के जेहन में घमंड नाम की कोई चीज नहीं थी। वे शायद ‘तक्बऊर इल्म को खा जाती है को माननेवाले थे। उन्होंने जीवन में शायद ही किसी को गलत अंदाज में डांटा होगा। उनके गुस्से में भी प्यार झलकता था। उनमें यह गुण उस समय के दिग्गज खेल प्रशासक स्व. मोइनुल हक साहब, स्व. बी.एन.बसु, आईएएस इत्यादि लोगों से प्राप्त हुआ था। बसु साहब हाथ में रूल (छोटी छड़ी या बैटन) के साथ फुटबॉल लीग मैच के दौरान गांधी मैदान में पहुंचते थे। छोटे कद के धोती-कुत्र्ता में दिखनेवाले स्वर्गीय नंदकिशोर प्रसाद (नंदू बाबू) ने भी ताहिर साहब को आगे बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।

पटना विश्वविद्यालय के प्रशासी पदाधिकारी पद से अवकाश ग्रहण करनेवाले नंदू बाबू खेल व खिलाड़ी के लिए हमेशा तत्पर रहते थे। पान खाने के शौकीन मृदुभाषी नंदूबाबू ने ताहिर साहब को विश्वविद्यालय स्तर पर हमेशा मदद किया था। ताहिर ने सैकड़ों मैचों के संचालन कराये। इस दौरान उठे विवाद को समझा-बुझाकर समाप्त कर देने में निपुण थे।
किसी के साथ भेदभाव नहीं करनेवाले मरहूम ताहिर साहब गरीबों के मददगार भी थे। वे फुटबॉल लीग मैचों के कार्यक्रम की जानकारी गांधी मैदान से निकलते ही देना शुरू कर देते थे। यह गुण अपने साथ लेते चले गये। वैसे वे अपने साथ कई गुण लेते चले गए। उनके जीवनकाल का सबसे बड़ा मुकाबला 1986 के जनवरी माह में पश्चिम जर्मनी की बोकम क्लब और टाटा एकादश के बीच का था। इस मैच के चार रेफरी में से एक मरहूम ताहिर हुसैन भी थे।
1959 में ताहिर साहब का निकाह जोहरा खातून से हुआ। यह निकाह उनके जीवन में कई बदलाव लेकर आया। नौकरी लगी, घर में ज्यादा समय देने लगे। लेकिन तब के दोस्तों ने इनके निवास स्थान पर ही फुटबॉल पर चर्चा करना शुरू कर दिया। चाय-बिस्कुट पर घंटों चर्चा होती रहती थी।
ताहिर साहब को दो पुत्र जावेद हुसैन और शादान परवेज हुए। इन्होंने अपने जीवनकाल में बड़ी व मंझली बेटी क्रमश: प्रवीणबानो व राबिया ताहिर का निकाह कर दिया था। लेकिन दो छोटी पुत्र तनवीरबानो और नाहिद नाज की शादी बड़े पुत्र जावेद हुसैन ने की। चारों पुत्री अपने-अपने घर पर खुशहाल जीवन व्यतीत कर रही हैं।

ताहिर को 22 जून, 1986 को दिल का दौरा पड़ा और वे सभी को छोड़ दुनिया से अलविदा कह दिया। पटना विश्वविद्यालय के अधिकारियों ने उनके बड़े पुत्र जावेद हुसैन की नियुक्ति बी.एन.कालेज में पीटीआई पद पर अनुकरण पर कर दिया। जावेद हुसैन को अदब की सलाहियत विरासत में मिली थी। जावेद ने समय के साथ सभी का दिल जीत लिया। वर्तमान समय में पटना विश्वविद्यालय के सबसे ज्यादा लोकप्रिय पीटीआई हैं। पिता की तरह ही जावेद खिलाड़ियों को हर तरह से मदद करते हैं।
जावेद हुसैन ने कहा कि जीवन में आज जो कुछ मिला वो सब मेरे पिता के कारण है। आज भी जानने वाले मेरा काम पलक झपकते कर देते हैं। मृदुभाषी जावेद हुसैन ने कहा कि मां का आंचल अभी हम सभी भाई-बहनों के सर पर है। पिछले वर्ष 19 मार्च को 78 वर्ष की उम्र में जावेद हुसैन की माता जोहरा खातून लकवाग्रस्त हो गयीं, लेकिन पुत्र एवं पुत्रबधुओं की सेवा ने उन्हें ठीक कर दिया। जावेद हुसैन ने कहा कि अल्लाह से मैं सिर्फ एक ही चीज मांगता हूं कि मां की छाया हमलोगों को मिलती रहे।



पिताजी तो बहुत कम उम्र में चले गये। जावेद के छोटे भाई शादाब परवेज ने ताहिर हुसैन सामाजिक संस्थान का निर्माण कर लिया है। दोनों भाइयों को दो-दो पुत्री हैं। जावेद हुसैन ने कहा कि हम दोनों भाई किस्मतवाले हैं। आज के समय में बेटी बेहतर हैं। जावेद हुसैन की बड़ी बेटी ‘निफ्ट’ में छोटी बेटी बीएससी की पढ़ाई कर रही है। पचपन वर्षीय जावेद हुसैन ने कहा कि खेल ने मेरे परिवार को पहचान दिलाया है। मैं अब्बाजान के बताये रास्ते पर चलने का प्रयास कर रहा हूं। माहौल बदला है, लेकिन खेल का अपना महत्व है।