
मोहम्मद अफरोज उद्दीन
पटना। वर्तमान समय में बिहार या देश की जनता इस शख्स को राष्ट्रीय जनता दल के प्रवक्ता के रूप में जानती हो पर यह शख्स बिहार के खेल जगत की एक आवाज है। जब भी यहां के प्लेयर्स या स्पोट्र्स एडमिनिस्ट्रेटर को अपनी संवैधानिक मांगों के लिए आवाज उठानी होती है तो इस शख्स को याद करते हैं और यह व्यक्ति इन सबों की आवाज बनकर सरकारी महकमे तक पहुंचता है और उनकी समस्याओं को दूर करवाता है। इस शख्स का नाम है मृत्युंजय तिवारी। मृत्युंजय तिवारी बिहार प्लेयर्स एसोसिएशन के अध्यक्ष हैं। तो आइए जानते हैं मृत्युंजय तिवारी के बारे में-


भागलपुर जिला के रहने वाले मृत्युंजय तिवारी को लोगों के लिए लड़ने का गुण अपने पिता स्व. गणेश तिवारी से मिली। उनके पिता स्व. गणेश तिवारी बिहार माध्यमिक शिक्षक संघ के नेता थे। मृत्युंजय तिवारी डाबर कंपनी में नौकरी करते थे। इस दौरान भी उनका सामाजिक कार्यों और लोगों की आवाज बनने का काम जारी था। नेपाल स्थानांतरण होने के बाद मृत्युंजय तिवारी ने नौकरी छोड़ दी और लोगों की भलाई करने में लग गए।
वर्ष 2000 में मृत्युंजय तिवारी बिहार की खेल जगत की सुर्खियों में आये। वर्ष 2000 के अगस्त महीने में बिहार के स्टार फुटबॉलर सह अर्जुन अवार्डी स्व. सी प्रसाद की मांगों को लेकर अपनी संस्था बिहार प्लेयर्स एसोसिएशन के बैनर तले आंदोलन किया। इस आंदोलन में राज्य के खेल संघों व खेलप्रेमियों का साथ मिला। आंदोलन इतना उग्र हुआ कि स्वयं तत्कालीन केंद्रीय मंत्री सैयद शाहनबाज हुसैन को हस्तक्षेप करना पड़ा और वे उनके आवास पर जाकर उनकी मांगों की पूर्ति की।


इसके बाद मृत्युंजय तिवारी राज्य खेल जगत में छा गए। जब किसी प्लेयर्स एंड स्पोट्र्स एडमिनिस्ट्रेटर के सामने को कोई समस्या आती थी तो वे मृत्युंजय तिवारी को याद करने लगे। वर्ष 2000 में बिहार क्रिकेट एसोसिएशन की स्थापना हुई पर कुछ ही महीनों बाद भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड की राजनीति में यहां के क्रिकेटरों के लिए राष्ट्रीय स्तर पर अपने राज्य के बैनर तले खेलने का दरवाजा बंद हो गया। मृत्युंजय तिवारी ने बिहार में क्रिकेट की पूर्ण मान्यता के लिए वर्षों लड़ाईयां लड़ीं। चेन्नई से लेकर कोलकाता तक बीसीसीआई की बैठकों के दौरान राज्य के क्रिकेटरों के साथ मिल कर आंदोलन किया और पुलिस के डंडे खाये। एक बार इसी आंदोलन के दौरान उन्हें चेन्नई में गिरफ्तार भी किया और रात सलाखों के पीछे बितानी पड़ी। उन्होंने क्रिकेट की खातिर बीसीसीआई के पूर्व अध्यक्ष जगमोहन डालमिया के घर पर डेरा डाला। कोलकाता में बीसीसीआई की बैठक के दौरान धरना दिया। यहां क्रिकेट के रहनुमा अपनी जायज मांगों के लिए आवाज उठाने से डरते थे, मृत्युंजय तिवारी क्रिकेटरों की आवाज बनते थे। उन्होंने जगमोहन डालमिया से लेकर श्रीनिवासन, शशांक मनोहर सहित कई दिग्गज क्रिकेटरों से मिल कर बिहार के क्रिकेटरों की समस्याओं के बारे में बताया। आखिरकार उनकी मेहनत रंग लाई और वर्ष 2008 में बिहार को एसोसिएट की मान्यता मिली। इस लड़ाई में बिहार के क्रिकेटरों ने भी उनका साथ दिया। एसोसिएट मान्यता के बाद पूर्ण मान्यता के लिए भी उन्होंने लंबी लड़ाई लड़ी। उन्होंने इस लड़ाई में कभी पद की लालसा नहीं की। उन्हें अगर कभी पद मिला तो बुला कर।




राज्य की खेल समस्याओं के लिए तिवारी ने कई लड़ाईयां लड़ीं हैं। चाहे राज्य के खिलाड़ियों की नौकरी की समस्या हो, बिहार में चलने वाले भारतीय खेल प्राधिकरण के सेंटरों का, मोइनुल हक स्टेडियम का दरवाजा खुलवाने का, खिलाड़ियों के लिए या फिर मैदान उपलब्ध कराने का, इन सबों में मृत्युंजय तिवारी खिलाड़ियों और खेल प्रशासकों की आवाज बन कर राज्य सरकार से लेकर केंद्र सरकार के महकमे तक पहुंचे। उनकी लड़ाई का ही फल है कि कई खिलाड़ियों को नौकरी देने के मामले में सरकार को अपने अन्यायपूर्ण फैसले को बदल कर नौकरी देनी पड़ी। पिछले वर्ष मोइनुल हक स्टेडियम के बंद दरवाजे को क्रिकेटरों के लिए खुलवाया।पिछले नेशनल गेम्स के बिहार के खिलाड़ियों की सहभागिता को लेकर आई समस्याओं को लेकर उन्होंने इंडियन ओलंपिक एसोसिएशन से लेकर खेल मंत्रालय तक दौड़ लगाई थी।




न केवल खेल जगत बल्कि अन्य के लिए भी मृत्युंजय तिवारी ने लड़ाई लड़ी हैं। चाहे गांधी मैदान का मामला हो या नाला रोड के दुकानदारों का। सारे आंदोलनों में इनके मुखर आवाज के आगे प्रशासन झुकी और लोगों का भला हुआ।
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छात्र जीवन में मृत्युंजय तिवारी ने कई आंदोलन किये हैं। राजीव गांधी के भागलपुर दौरे के समय भी उन्होंने बड़ा आंदोलन किया था और सुर्खियों में आये थे।आज भी व्यस्तता के बावजूद खिलाड़ियों और खेल प्रशासकों के लिए इनके दरवाजे हमेशा खुले रहते हैं। इनके चाहने वाले तो बस यही दुआ करते हैं कि जल्द से जल्द तिवारी जी वैधानिक रुप में हमारे प्रतिनिधि ही नहीं बने बल्कि सत्ता के शीर्ष तक पहुंचे।